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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

गामादाग्रहणेष्वविशेषः

नन्वेवं देङो दोधातोश्च कृतात्त्वस्य घुसंज्ञा न स्यात्, तथा मेङ आत्त्वे 'प्रणिमाते'त्यादौ 'नेर्गदनद' इति णत्वं न स्यात्, तथा 'गै' इत्यस्यात्वे 'घुमास्था' इतीत्वं न स्यादत आह – 

गामादाग्रहणेष्वविशेषः ।११५।

अत्र च ज्ञापकं दैपः पित्त्वम्। तद्धि 'अदाबि'ति सामान्यग्रहणार्थम्। अन्यथा लाक्षणिकत्वादेव विधौ तद्ग्रहणे सिद्धे किं निषेधे सामान्यग्रहणार्थेन पित्त्वेन। तेन चैकदेशानुमतिद्वारा सम्पूर्णपरिभाषा ज्ञाप्यते। इयं च 'लक्षणप्रतिपदोक्त'परिभाषा- 'निरनुबन्धक'परिभाषा- 'लुग्विकरण'परिभाषाणां बाधिका। 'दाधाघ्वि'ति सूत्रे भाष्ये स्पष्टा। 'गातिस्था' इति सूत्रे इणादेशगाग्रहणमेवेष्यत इति दोष इत्यन्यत्र विस्तरः॥११५॥

 

कामाख्या

गामादाग्रहणेष्विति। दाशब्दस्य ग्रहणं यस्मिन्सूत्रे तद्दाग्रहणं। गाश्च माश्च दाग्रहणं च गामादाग्रहणानि। तथा च गाविषये  माविषये दापदघटिते सूत्रे च लुग्विकरणपरिभाषा, लक्षणप्रतिपदोक्तपरिभाषा, निरनुबन्धकपरिभाषा, अर्थवद्ग्रहणपरिभाषा च नोपतिष्ठत इत्यर्थः। यत्तु गामादानां ग्रहणं यत्र तत्रैतत्परिभाषाचतुष्टयं नोपतिष्ठत इति तन्न। 'घुमास्थे'ति सूत्रे कृतात्वस्य 'पै' इत्यस्य ग्रहणापत्तेः। क्वचित्तु विशेषस्य ग्रहणमित्याह गातिस्थेति। गापोर्ग्रहणे इण्पिबत्योर्ग्रहणमिति भाष्यमत्र मानम्। अन्यत् सुगमम्॥११५॥

परिभाषार्थमञ्जरी  नास्ति।

नन्वेवं देङो दोधातोश्च कृतात्त्वस्य घुसंज्ञा न स्यात्, तथा मेङ आत्त्वे 'प्रणिमाते' त्यादौ 'नेर्गदनद (८.४.१७) इति णत्वं न स्यात्, तथा 'गै' इत्यस्यात्वे 'घुमास्था' (६.४.६६) इतीत्वं न स्यादत आह -

नन्वेवम् = इस प्रकार लक्षणप्रतिपदोक्तपरिभाषा स्वीकार करने पर यह दोष आ रहा है कि 'गा, मा' और दा पदघटित सूत्रों में वे ही गा, मा और दालिये जायेंगे जो धातु पाठ में इसी रूप में पढे गये हों । इसका परिणाम यह होगा कि ‘देङ् रक्षणे' ‘दो अवखण्डने' धातुओं में आत्व करके 'दा' रूप बनाने पर इस दा का ग्रहण दाघटित सूत्रों में नहीं होगा, क्योंकि यह दा लाक्षणिक है । फलस्वरूप इस प्रकार के लाक्षणिक दा की घु संज्ञा नहीं होगी। इसी प्रकार 'मेङ्' धातु के एकार को आकार करने पर 'प्रणिमाता' प्रयोग में 'नेर्गदनद' सूत्र से णत्व नहीं होगा, क्यों - कि यह लाक्षणिक मा 'नेगंद' सूत्रस्थ मा से गृहीत नहीं होगा ।

इसी प्रकार 'गै शब्दे' धातु के ऐकार को आकार करने पर 'घुमास्थागापा' सूत्र में इसका ग्रहण नहीं होगा, इसलिये उससे यहाँ ईत्व नहीं होगा ।

इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -

गामादाग्रहणेष्वविशेषः ॥ ११५ ॥

गा, मा और दापदघटित सूत्रों में विशेष का ग्रहण नहीं होता, किन्तु गा मा और दा सामान्य का ग्रहण होता है । तात्पर्य यह है कि विशेषोपस्थापक परिभाषाएँ - लुग्विकरण परिभाषा, लक्षणप्रतिपदोक्त परिभाषा, निरनुबन्धक परिभाषा और अर्थवद्ग्रहण परिभाषा - ये चार परिभाषाएँ गामादा ग्रहण में नहीं लगती हैं । इसलिये वहाँ सामान्य का ग्रहण हो जाता है ।

अत्र च ज्ञापकं दैपः पित्त्वम् । तद्धि 'अदाबि'ति सामान्यग्रहणार्थम् । अन्यथा लाक्षणिकत्वादेव विधौ तदग्रहणे सिद्धे किं निषेधे सामान्यग्रहणार्थेन पित्त्वेन । तेन चैकदेशानुमतिद्वारा सम्पूर्णपरिभाषा ज्ञाप्यते । इयं च 'लक्षणप्रतिपदोक्त'परिभाषा - 'निरनुबन्धक'परिभाषा-'लुग्विकरण'परिभाषाणां बाधिका । दाधाघ १.१.२० सूत्रे भाष्ये स्पष्टा ।

गातिस्था २.४.७७ इति सूत्रे इणादेशगाग्रहणमेवेष्यत इति दोष इत्यन्यत्र विस्तरः ॥ ११५ ॥

'दैप् शोधने' इस धातु में जो पित् करण किया गया है वही पित्व इस परिभाषा का ज्ञापक है । ‘दाधाघ्वदाप्' इस सूत्र में 'अंदाप्' इस निषेधबोधकपद में दापू शब्द से 'दाप् लवने' और 'दैप् शोधने' इन दोनों का संग्रह किया जाता है । किन्तु लक्षणप्रतिपदोक्त परिभाषा से अदा घटक दाप् शब्द से प्रतिपदोक्त 'दाप् लवने' ही लिया जायेगा, न कि दैप धातु का आत्वनिष्पन्न दाप् । ऐसी स्थिति जब 'दैप्' धातु का 'दाप्' शब्द से गृहीत ही नहीं होगा तो यहाँ पित् करण की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार पित् करण व्यर्थ है ।

दूसरी बात यह है कि विधी = घुसंज्ञाविधि में प्रतिपदोक्त दा का ही ग्रहण होगा, न कि लाक्षणिक दा का । ऐसी स्थिति में प् धातु का जो दा है उसको तो लाक्षणिक होने के कारण ही घु संज्ञा नहीं हो सकेगी, तो 'अदाप्' इस निषेधबोधक पद से सामान्यतया दाप् और दैप् दोनों के ग्रहण के लिये किये गये दैप् धातु के पित्व की आवश्यकता क्या है ? इस प्रकार पित् करण व्यर्थ होकर इस परिभाषा का ज्ञापन करता है । यह ज्ञापन यद्यपि केवल दा ग्रहण के लिये होना चाहिये, किन्तु परिभाषा के एक अंश में जब प्रमाण मिल गया, तब एकदेशानुमत्या सम्पूर्ण परिभाषा ही उस पित् करण से ज्ञापित होती है ऐसा समझना चाहिये ।

यह परिभाषा 'लक्षणप्रतिपदोक्त परिभाषा' 'निरनुबन्धक परिभाषा' तथा 'लुग्-विकरण परिषाषा' इन परिभाषाओं की बाधिका है । इन परिभाषाओं से तत्तद् विशेष के ग्रहण की प्राप्ति रहने पर इस परिभाषा से इन विशेषोपस्थापक परिभाषाओं का बाध हो जाने पर अविशेष अर्थात् सामान्य का ग्रहण होता है । 'दाधाघ्वदाप्' सूत्र के भाष्य में यह परिभाषा स्पष्ट है ।

अब यहाँ यह सन्देह होता है कि 'गातिस्था' सूत्र में गाति यह निर्देश 'इणो गा लुङि' इस सूत्र से अदादिगण के इण् धातु को जो गा आदेश किया जाता है, उसके अनुकरण से रितप् प्रत्यय करके बनाया हुआ है । इससे स्पष्ट है कि इस सूत्र में इण् स्थानिक गा का ही ग्रहण अभिप्रेत है, किन्तु प्रस्तुत परिभाषा 'गा' ग्रहण में अविशेष के ग्रहण की बात कहती है । इस प्रकार परिभाषाविरोध हो रहा है । इस शंका का उत्तर देते हुए लिख रहे हैं कि 'गातिस्था' सूत्र में इण् के स्थान आदेश गा का ही ग्रहण वाञ्छित है क्योंकि भाष्यकार ने कहा है कि - 'गापोर्ग्रहणे इण्-पिबत्योर्ग्रहणम्' इसलिये कोई दोष नहीं है । यह बात अन्यत्र (भाष्यादि) में विस्तार से कही गई है ॥ ११५ ॥