ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र
ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र।१२५।
स्पष्टमेव पठितव्येऽनुमानाद् बोधनमसार्वत्रिकत्वार्थमित्यर्थः। तेन ज्ञापकसिद्धपरिभाषयाऽनिष्टं नापादनीयमिति तात्पर्यम्। भाष्येऽपि ध्वनितमेतत् 'ङ्याप्' सूत्रादौ। ज्ञापकेति न्यायस्याप्युपलक्षणम्। न्यायज्ञापकसिद्धानामपि केषाञ्चित्कथनमन्येषामनित्यत्वबोधनायेति भावः। यथा 'तत्स्थानापन्ने तद्धर्मलाभ' इति न्यायसिद्धं स्थानिवत्सूत्रम्, ज्ञापकसिद्धं च तत्र 'अनल्विधा'विति॥१२५॥
कामाख्या
ज्ञापकसिद्धमिति। अस्या लाभप्रकारमाह स्पष्टमेवेति। ज्ञापकशब्दार्थमाह अनुमानादिति। तेन तस्यासार्वत्रिकत्वेन। न च शब्दोच्चारणजन्यक्लेशानुत्पत्त्याऽनुमानाद्बोधनस्यान्यथासिद्धत्वान्नोक्तार्थज्ञापकत्वमिति वाच्यम्। अनुमानाद्बोधनेऽपि ज्ञानजनकमनोव्यापाररूपक्लेशस्य सत्त्वेनाविशेषात्॥१२५॥
नास्ति।
हिन्दीटीका
पूर्व परिभाषा नञ्घटित है । नञ्घटितत्व की समानता के आधार पर यह परिभाषा लिखी गई -
ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र ।। १२५ ।।
जो ज्ञापकसिद्ध होता है वह सार्वत्रिक नहीं होता ।
स्पष्टमेव पठितव्येऽनुमानाद् बोधनमसार्वत्रिकत्वार्थमित्यर्थः । तेन ज्ञापकसिद्धपरिभाषयानिष्टं नापादनीयमिति तात्पर्यम् । भाष्येऽपि ध्वनितमेतत् ङयाप्सूत्रादौ ।
ज्ञापकेति न्यायस्याप्युपलक्षणम् । न्यायज्ञापकसिद्धानामपि केषाञ्चित्कथनमन्येषामनित्यत्वबोधनायेति भावः । यथा 'तत्स्थानापन्ने तद्धर्मलाभ' इति न्यायसिद्धं स्थानिवत्सत्र, म् ज्ञापकसिद्धं च तत्र 'अनविधावि'ति ॥ १२५ ॥
किसी वस्तु का ज्ञान जब स्पष्टतः उसका पाठ करके (उच्चारण करके) कराया जा सकता है तो ऐसा न करके अनुमान के द्वारा उसका बोध कराने से यह सिद्ध होता है कि वह चीज सार्वत्रिक नहीं है । यद्यपि शब्दतः उच्चारण करने में कण्ठताल्वादि के अभिघात का गौरव होता है तथापि अनुमान से उसका बोध कराने में ज्ञानजनकमनोव्यापार का गौरव भी कम नहीं होता । इस प्रकार गौरव की समानता होने पर भी स्पष्टोच्चारण में प्रतिपत्ति का लाघव होता है । ऐसा न करके गौरवग्रस्त अनुमान के द्वारा बोध कराना सार्वत्रिक नहीं होता । इसलिये ज्ञापकसिद्ध परिभाषाओं से अभीष्ट की सिद्धि तो की जा सकती है किन्तु अनिष्ट की आपत्ति नहीं की जा सकती । ‘ङयाप्प्रातिपदिकात्' सूत्र के भाष्य में यह बात ध्वनित है । वहाँ पर ज्ञापकसिद्ध ‘लिङ्गविशिष्ट परिभाषा' की प्रवृत्ति 'द्विषतीताय:' इस प्रयोग में नहीं की गई है । इसका फल यह होता है कि यहाँ 'द्विषत्परयोस्ताये' सूत्र से मुम् नहीं होता ।
इसी प्रकार 'कार्मस्ताच्छील्ये' से ज्ञापित ' ताच्छीलिकेऽण्कृतानि भवन्ति' इस परिभाषा की प्रवृत्ति छत्र शब्द से ण प्रत्यय करके स्त्रीलिंग बनाने पर नहीं होती । फलस्वरूप ‘छात्रा' प्रयोग में अण् प्रयुक्त ङीप् न होकर स्त्रीत्व का द्योतक टाप् ही होता है ।
यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्याख्यान के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि जो ज्ञापकसिद्ध है वह सार्वत्रिक नहीं है तो ऐसी स्थिति में जो परिभाषाएँ न्यायसिद्ध हैं वे तो सार्वत्रिक हो सकती है । इस शंका का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि परिभाषा में जो ज्ञापक शब्द आया है वह न्याय का भी उपलक्षण है ।
अर्थात् न्याय सिद्ध भी सार्वत्रिक नहीं होता । किन्तु ज्ञापकसिद्ध और न्यायसिद्ध का भी यदि शब्दतः कथन कर दिया जाय तो उसका तात्पर्य यह है कि उनसे अन्य जो ज्ञापकसिद्ध और न्यायसिद्ध हैं वे अनित्य हैं । जैसे 'तत्' स्थानापन्नस्तद्धर्मं लभते' इस लौकिक न्याय से सिद्ध स्थानिवत् सूत्र है और 'अनल्विधौ' यह अंश ज्ञापकसिंद्ध है । क्योंकि 'अदो जग्धिः' सूत्र में ल्यप् ग्रहण न करके 'ति किति' इतना ही करना चाहिये था । इतना करने पर भी स्थानिवत् सूत्र से ही क्त्वा प्रत्यय का तादि कित्व स्थानिवद्भाव से ल्यप् में चला आता । ऐसी स्थिति में इस सूत्र में ल्यप् ग्रहण की क्या आवश्यकता है ? वही ल्यप् ग्रहण ज्ञापन करता है कि अल्विधि में स्थानिवद्भाव नहीं होता । स्थानिवद्भाव जब नहीं होगा तब तादि. कित्व ल्यप् में नहीं जायेगा । इसलिये वहाँ ल्यप् ग्रहण करना स्वांश में चरितार्थ होता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि 'स्थानिवत्' और 'अनल्विधौ' ये दोनों ज्ञापक न्यायसिद्ध हैं । इन ज्ञापकन्यायसिद्धों का शब्दतः पाठ भी किया गया है । इससे यह समझा जाता है कि इनसे भिन्न ज्ञापकन्यायसिद्ध असार्वत्रिक होते हैं, जैसे लोकन्याय से सिद्ध यदागमपरिभाषा 'दिदीपे ' प्रयोग में प्रवृत्त नहीं होती है ।। १२५ ।।