निषेधाच्च बलीयांसः
ननु 'स्यन्दू'धातौ 'स्यन्त्स्यती'त्यादावात्मनेपदनिमित्तत्वाभावनिमित्तत्वाच्च 'न वृद्भ्यश्चतुर्भ्यः' इति निषेधस्य बहिरङ्गत्वेन अन्तरङ्गत्वादूदिल्लक्षणस्येड्विकल्पस्यापत्तिरत आह
निषेधाच्च बलीयांसः।१२१।
अन्तरङ्गादुपजीव्यादपि बलीयांस इत्यर्थः। 'चतुर्भ्य' इति तु स्पष्टार्थमेव। अत एव तत्प्रत्याख्यानं भाष्योक्तं सङ्गच्छते। अत एव सवर्णसंज्ञादेर्निषेधविषये न विकल्पः। अन्यथा मीमांसकरीत्या विधेरुपजीव्यत्वेन प्राबल्यात्तस्य सर्वथा बाधानुपपत्त्या दुर्वारः स इति मञ्जूषायां विस्तरः। अत एव 'द्वन्द्वे च', 'विभाषा जसी'ति चरितार्थम्। विध्युन्मूलनाय प्रवृत्तिरस्या बीजम्। 'न लुमता', 'कमेणिङि'त्यनयोर्भाष्ये स्पष्टैषा॥१२१॥
कामाख्या
निषेधाश्चेति। ननूक्तफलस्य चतुर्ग्रहणसामर्थ्यादेव सिद्धौ न्यायानुपयोग इत्यत आह चतुर्भ्य इति। उपजीव्यादपि निषेधशास्त्रस्य प्राबल्ये साधकमाह अत एवेति। उपजीव्यादपि प्राबल्यादेव। अत एव। उक्तार्थत्वादेव। न विकल्प इति। स्वसाफल्याय निषेधेनापेक्षितत्वाद्विधेर्निषेधोपजीव्यत्वम्। उपजीव्यापेक्षया बलवत्वाभावे सर्वथाविधिबाधकत्वाभावेऽपि स्वसार्थक्याय पाक्षिकविधिबाधकत्वस्यावश्यकत्वेन निषेधविषये वैकल्पिकत्वापत्तिरिति भावः। अत एव अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति। उदिते जुहोति। अनुदिते जुहोति। एषु षोडशिग्रहण होमस्य च वैकल्पिकत्वं मीमांसकैः सिद्धान्तिम्। अत एवेति। निषेधस्य प्राबल्येन विकल्पाभावादेव। अन्यथा 'द्वन्द्वे च' इत्यनेनैव विकल्पलाभे तद्वैयर्थ्यं स्पष्टमेव। इयं च लोकसिद्धन्यायमूलिकेत्याह विध्युन्मूलनायेति। प्राप्तस्य विधेर्निवर्तनायेत्यर्थः। एतेन येन नाप्राप्तन्यायेन विधिशास्त्रस्य निषेधशात्रेण बाध इति दर्शितम्। यथा लोकेऽपि यस्योन्मूलनाय यस्य प्रसक्तिस्ततस्तस्य बलवत्वम्, कंसात् कृष्णस्येवेति दिक्॥१२१॥
नास्ति।
हिन्दीटीका
ननु 'स्यन्दू'धातौ 'स्यन्त्स्यती'त्यादावात्मनेपदनिमित्तत्वाभावनिमित्तत्वाच्च न वृद्भ्यश्चतुर्भ्यः ७.२.५९ इति निषेधस्य बहिरङ्गत्वेन अन्तरङ्गत्वादूदिल्लक्षणस्येड्विकल्पस्यापत्तिरत आह -
स्यन्दू धातु प्रस्रवण अर्थ में है । इससे ऌट् लकार लाने पर 'वृद्भ्यः स्यसनोः' सूत्र से परस्मैपदविकल्प से किया जाता है । इस परस्मैपद वाले पक्ष में 'न वृद्भ्यश्वतुर्भ्यः' इस सूत्र से इट् का निषेध हो जाता है जिससे 'स्यन्त्स्यति' ऐसा रूप बनता है । यहाँ सन्देह होता है कि यहाँ जो इट् का निषेधक सूत्र है उसमें आत्मनेपद के निमित्त का अभाव निमित्त है । इसलिये यह निषेध बहिरङ्ग है । इसकी अपेक्षा 'स्वरति सूति' इत्यादि सूत्र से इसे ऊदित मान कर जो इड् - विकल्प प्राप्त है वह अन्तरङ्ग है । इसलिये यहाँ वैकल्पिक इट् होना चाहिये । इस प्रकारे उक्त प्रयोग में इड् विकल्प की आपत्ति होने पर यह परिभाषा बनाई गई -
निषेधाच्च बलीयांसः ॥ १२१ ॥
अन्तरङ्ग और अपने उपजीव्य (उपकारक) विधिशास्त्र की अपेक्षा, निषेधशास्त्र बलवान् होते हैं । विधिशास्त्र, निषेधशास्त्र के उपजीव्य इसलिये होते हैं कि यदि विधिशास्त्र न रहें तो निषेध रूप अभाव का प्रतियोगी ही अप्रसिद्ध हो जायेगा और जब प्रतियोगी ही नहीं रहेगा, तब अभाव किसका होगा । इस प्रकार प्रतियोगी का समर्पक होने के कारण विधिशास्त्र निषेधशास्त्र के उपजीव्य होते हैं । निषेधशास्त्र के अन्तरङ्ग और उपजीव्य की अपेक्षा बलवान् होने का परिणाम यह हुआ कि 'स्यन्त्स्यति' प्रयोग में अन्तरङ्ग इट् का निषेध हो गया, जिससे उक्त प्रयोग की सिद्धि हुई ।
अन्तरङ्गादुपजीव्यादपि बलीयांस इत्यर्थः । 'चतुर्भ्य' इति तु स्पष्टार्थमेव । अत एव तत्प्रत्याख्यानं भाष्योक्तं सङ्गच्छते । अत एव सवर्णसंज्ञादेर्निषेधविषये न विकल्पः । अन्यथा मीमांसकरीत्या विधेरुपजीव्यत्वेन प्राबल्यात्तस्य सर्वथा बाधानुपपत्त्या दुर्वारः स इति मञ्जूषायां विस्तरः । अत एव द्वन्द्वे च १.१.३१ विभाषा जसि १.१.३२ इति चरितार्थम् । विध्युन्मूलनाय प्रवृत्तिरस्या बीजम् । न लुमता १.१.६३ कमेणिङ् ३.१.३० इत्यनयोर्भाष्ये स्पष्टैषा ॥ १२१ ॥
अन्तरङ्गशास्त्र से और अपने उपजीव्यशास्त्र से भी निषेधशास्त्र बलवान् होते हैं | इसलिये 'स्यन्त्स्यति' में अन्तरङ्ग इट् का निषेध हो जाता है । अब यहीं यह शंका होती है कि ‘न वृद्भ्यश्चतुर्भ्यः' इस सूत्र में किये गये चतुर्ग्रहण के सामर्थ्य से ही इस प्रयोग में इट् का निषेध सिद्ध है तो इसके लिये इस परिभाषा की क्या आवश्यकतां है ?
इस शंका का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि प्रस्तुत परिभाषा से ही 'स्यन्त्स्यति' प्रयोग में इट् का निषेध सिद्ध होने के कारण चतुर्ग्रहण स्पष्टार्थ है । अत एव = चतुर्ग्रहण स्पष्टार्थ है, इस बात को स्वीकार करने से ही भाष्यकार द्वारा किया गया चतुर्ग्रहण का प्रत्याख्यान संगत होता है । यदि चतुर्ग्रहण आवश्यक होता तो भाष्यकार उसका प्रत्याख्यान नहीं करते ।
अत एव = निषेधशास्त्र अपने उपजीव्य शास्त्र से भी बलवान् होता है, इस बात को स्वीकार करने से ही 'नाज्झलौ' इस सवर्णसंज्ञा के निषेध के विषय में सवण संज्ञा का विकल्प नहीं होता है । इसका तात्पर्य यह है कि अपनी सफलता के लिये निषेधशास्त्र को विधिशास्त्र की अपेक्षा होती है । इसलिये विधिशास्त्र निषेधशास्त्र का उपजीव्य होता है । यदि उपजीव्य की अपेक्षा निषेधशास्त्र बलवान् न होवे तो उसकी सार्थकता ही नहीं हो सकेगी । इसलिये निषेधशास्त्र की सार्थकता के लिये पाक्षिकविधिबाध आवश्यक हो जाता है जिससे पक्ष में निषेधशास्त्र की भी सार्थकता हो जाय । इस प्रकार निषेध यदि अपने उपजीव्य का बाधक न हो तो वहाँ विधिविकल्प होना अवश्यम्भावी है । यह अवश्यम्भावी विधिविकल्प सवर्णसंज्ञा के विषय में भी होने लग जाता, किन्तु निषेध शास्त्र के द्वारा अपने उपजीव्य का बाध होता है, यह बात स्वीकार कर लेने पर सवर्ण संज्ञा के विषय में विकल्प नहीं होता ।
अन्यथा = उपजीव्य की अपेक्षा निषेध बलवान् होता है, इस बात को स्वीकार न करने पर, जिस प्रकार मीमांसक लोग 'अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' 'नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' 'उदिते जुहोति' 'अनुदिते जुहोति' इत्यादि स्थलों में षोडशी के ग्रहण और उदय में होम का वैकल्पिक विधान करते हैं, उसी प्रकार विधिशास्त्र, निषेधशास्त्र के लिये उपजीव्य होने के कारण प्रबल होता और प्रबल होने के कारण उसका सर्वथा बाध हो नहीं सकता था । ऐसी स्थिति में विधि और निषेध दोनों के समन्वय के लिये सः वह विकल्प दुर्वार हो जाता । तात्पर्य यह कि मीमांसा शास्त्र की भाँति यहाँ भी विकल्प होने लग जाता । यह बात मञ्जूषा ग्रन्थ में विस्तार से कही गई है ।
अत एव = निषेध के प्रबल होने के कारण उसके विषय में विकल्प नहीं होता, इस बात को स्वीकार करने से ही 'द्वन्द्वे च' और 'विभाषा जसि' इन दोनों सूत्रों की चरितार्थता होती है । 'द्वन्द्वे च' यह सूत्र द्वन्द्व की सर्वनाम संज्ञा का निषेध करता है । 'विभाषा जसि' यह सूत्र जस् को शी भाव की कर्त्तव्यता में द्वन्द्व में सर्वनाम संज्ञा विकल्प करता है । यदि निषेधशास्त्र बलवान् नहीं होता तो 'द्वन्द्वे च' यह निषेध अपने उपजीव्य सर्वनाम संज्ञा का सर्वथा बाध न करके पाक्षिक बाध करता । ऐसी स्थिति में विकल्प की सिद्धि स्वयमेव हो सकती तो फिर इस सूत्र (विभाषा जसि) की क्या आवश्यकता रह जाती ? इससे स्पष्ट है कि निषेध अपने उपजीव्य से बलवान् होता है । इसीलिये 'सर्वादीनि सर्वनामानि' सूत्र से प्राप्त सर्वनाम संज्ञा का ‘द्वन्द्वे च’' सूत्र से सर्वथा बाध हो जाने पर जस् विभक्ति में विकल्प करने के लिये 'विभाषा जसि' सूत्र की आवश्यकता होती है ।
विधिशास्त्र के उन्मूलन = निवृत्ति के लिये निषेध की प्रवृत्ति होती हैं, यही इस परिभाषा का बीज है । 'न लुमताङ्गस्य' 'कमेणिङ्' इन दोनों सूत्रों के भाष्य में यह परिभाषा स्पष्ट है ।। १२१ ।।