अनिर्दिष्टार्थाः प्रत्ययाः स्वार्थे
ननु अत्यन्तस्वार्थिकानामर्थप्रत्यायकत्वरूपप्रत्ययत्वानुपपत्तिरत आह –
अनिर्दिष्टार्थाः प्रत्ययाः स्वार्थे।१२२।
यस्यार्थः प्रकृत्या प्रत्याय्यते सोऽपि प्रत्यय इत्यस्याप्यङ्गीकारात्तस्य प्रत्ययत्वमिति न दोषः। स्वार्थ इत्यस्य स्वीयप्रकृत्यर्थ इत्यर्थः। महासंज्ञाबलादर्थाकाङ्क्षायामन्यानुपस्थितिरस्या बीजम्। 'सुपि स्थः' इत्यादिसूत्रेषु भाष्ये स्पष्टैषा॥१२२॥
कामाख्या
अनिर्दिष्टा इति। अनिर्दिष्टो विशेषतः शब्दविशेषेणाप्रतिपादितोऽर्थो येषामित्यर्थः। ननु अन्वयव्यतिरेकलभ्यस्य वाच्यवाचकभावात्मकसम्बन्धस्यात्यन्तस्वार्थिकेष्वसम्भवेन कथं प्रत्ययत्वमत आह यस्यार्थ इति। स्वस्व प्रकृत्यन्यतरार्थप्रत्यायकत्वं प्रत्ययत्वमिति सिद्धान्तात्। ननु अत्यन्तस्वार्थिकस्यार्थ एवाप्रसिद्ध इति स्वार्थ इत्यनुपपन्नमत आह स्वार्थ इत्यस्येति। इयं च न्यायसिद्धेत्याह महासंज्ञेति॥१२२॥
नास्ति।
हिन्दीटीका
ननु अत्यन्तस्वार्थिकानामर्थप्रत्यायकत्वरूपप्रत्ययत्वानुपपत्तिरत आह -
प्रतिपूर्वक अन्तर्भावितण्यर्थक इण् धातु से अच् प्रत्यय करने पर प्रत्यय शब्द बनता है । भाष्यकार ने इसे अन्वर्थक संज्ञा माना है । इसलिये प्रत्यय के द्वारा अर्थ का प्रत्यायन आवश्यक है । प्रत्ययों के भीतर कुछ ऐसे प्रत्यय होते हैं जिन्हें अत्यन्तस्वार्थिक प्रत्यय कहा जाता है । ये अत्यन्तस्वार्थिक प्रत्यय अर्थविशेष का निर्देश करके विहित नहीं होते हैं, जैसे - 'यावादिभ्यः कन्' सूत्र से विहित कन् प्रत्यय किसी अर्थ का उल्लेख करके विहित नहीं हैं । ऐसी स्थिति में जो अर्थ का प्रत्यायक हो वह प्रत्यय कहा जाता है, ऐसा प्रत्यय का लक्षण अत्यन्तस्वार्थिक प्रत्ययों में न जाने के कारण उनका प्रत्ययत्व अनुपपन्न है । ऐसी शंका होने पर यहू परिभाषा बनाई गई -
अनिर्दिष्टार्थाः प्रत्ययाः स्वार्थे ॥ १२२ ॥
जिनका अर्थ निर्दिष्ट नहीं है ऐसे प्रत्यय स्वार्थ अर्थात् अपनी प्रकृति के अर्थ में होते हैं ।
इस प्रकार अत्यन्तस्वार्थिक प्रत्यय, प्रकृति के अर्थ के बोधक होने के कारण सार्थक हो गये, जिससे उनका प्रत्ययत्व उपपन्न हो गया ।
यस्यार्थः प्रकृत्या प्रत्याय्यते सोऽपि प्रत्यय इत्यस्याप्यङ्गीकारात्तस्य प्रत्ययत्वमिति न दोषः । स्वार्थ इत्यस्य स्वीयप्रकृत्यर्थ इत्यर्थः । महासंज्ञाबलादर्थाकाङ्क्षायामन्यानुपस्थितिरस्या बीजम् । सुपि स्थः ३.२.४ इत्यादिसूत्रेषु भाष्ये स्पष्टैषा ॥ १२२ ॥
जिसका अर्थ प्रकृति के द्वारा कहा जाय, वह भी प्रत्यय कहा जाता है इस बात को स्वीकार करने से 'तस्यापि ' = अत्यन्तस्वार्थिक का भी प्रत्ययत्व हो जाता है इसलिये कोई दोष नहीं होता ।
परिभाषा में जो स्वार्थ शब्द आया है, उसमें स्व शब्द आत्मीयवाची है । प्रत्यय के लिये आत्मीय उसकी प्रकृति होती है, इसलिये स्वार्थ शब्द का अर्थ स्वीय (स्वकीय) प्रकृति का अर्थ है ।
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि जो अपने अर्थ का अथवा अपनी प्रकृति के अर्थ का प्रत्यायक हो, वह प्रत्यय कहा जाता है । अत्यन्तस्वार्थिक प्रत्यय यद्यपि अपने अर्थ के प्रत्यायक नहीं हैं किन्तु अपनी प्रकृति के अर्थ के प्रत्यायक तो हैं ही, इसलिये उनके प्रत्ययत्व में कोई बाधा नहीं है ।
प्रत्यय यह महती संज्ञा है । महती संज्ञा अन्वर्थ होती है, इसलिये प्रत्यय का क्या अर्थ है, ऐसी आकांक्षा उपस्थित होती है । ऐसी आकांक्षा होने पर अत्यन्त - स्वार्थिकप्रत्ययस्थल में प्रकृत्यर्थ से भिन्न किसी अन्य अर्थ की उपस्थिति का न होना ही इसका बीज है । प्रकृत्यर्थ से भिन्न किसी अन्य अर्थ की उपस्थिति न होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ प्रत्यय का वही अर्थ है जो प्रकृति का है । अन्यथा प्रत्यय यह महती संज्ञा व्यर्थ हो जायेगी । 'सुपि स्थः' इत्यादि सूत्रों के भाष्य में यह परिभाषा स्पष्ट है ।। १२२ ।।