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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

योगविभागादिष्टसिद्धिः

योगविभागादिष्टसिद्धिः।१२३।

इष्टसिद्धिरेव, न त्वनिष्टापादनं कार्यमित्यर्थः। तत्तत्समानविधिकद्वितीययोगेन विभक्तस्यानित्यत्वज्ञापनमेतद्बीजम्॥१२३॥

 

 

कामाख्या

योगविभागादिति। सर्वस्यैव वाक्यस्यासति बाधके सावधारणत्वमित्याशयेनाह इष्टसिद्धिरेवेति। अनित्यत्वज्ञापनमिति। अनित्यशास्त्रस्येष्टस्थल एव प्रवृत्तिस्वीकारादिति भावः॥१२३॥

नास्ति।

पूर्व परिभाषा में 'सुपि स्थः ' सूत्र का उल्लेख किया गया है । 'द्विपः' इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि के लिये इस सूत्र में 'सुपि' ऐसा योगविभाग किया गया है | इसी प्रसंग में योगविभाग का स्मरण हो जाने से उससे सम्बन्धित परिभाषा कही जा रही है -

योगविभागादिष्टसिद्धिः ॥ १२३ ॥

योगविभाग से इष्टसिद्धि की जाती है ।

इष्टसिद्धिरेव न त्वनिष्टापादनं कार्यमित्यर्थः । तत्तत्समानविधिकद्वितीययोगेन विभक्तस्यानित्यत्वज्ञापनमेतद्बीजम् ॥ १२३ ॥

योगविभाग से इष्ट प्रयोगों की सिद्धि ही की जाती है । उससे अनिष्ट प्रयोग की आपत्ति नहीं करनी चाहिये । इसलिये 'आतो धातो:' सूत्र में 'आत:' इस योगविभाग से ‘क्त्वः' 'श्नः' इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि की जाती है, किन्तु 'हाहान्' प्रयोग में इस योगविभाग के द्वारा आकार का लोप करके अनिष्ट का आपादन नहीं किया जाता है । योगविभाग के द्वारा अनेकार्थ का बोधकत्व ही सूत्रों का विश्वतोमुखत्व है ।

इस परिभाषा के बीज का उल्लेख करते हुए कह रहे हैं कि -

'आतो धातो:' सूत्र में जहाँ योगविभाग किया जाता है वहाँ 'आत:' इस योग का विधेय जो आकार का लोप है वही 'धांतो:' इस योग का भी विधेय है । इस प्रकार दोनों योग समानविधिक होते हैं । इनमें 'आतः' यह योग आकारमात्र का लोप करे तो ‘धातो:' इस योग का वैयर्थ्य स्पष्ट है । इसलिये द्वितीय योग के सामर्थ्य से विभक्त प्रथमयोग का अनित्यत्व ज्ञापित किया जाता है । इससे प्रथम योग का क्वाचित्कत्व सिद्ध होता है । प्रथम योग का यह क्वाचित्कत्व इष्टसिद्धि के लिये होता है, न कि अनिष्टापादन के लिये । यही इस परिभाषा का बीज है ।। १२३ ।।