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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

पदगौरवाद्योगविभागो गरीयान्

ननु 'जभोऽचि' 'रधेश्च' 'नेट्यलिटी'त्येव सूत्र्यतां किं द्वीरधिग्रहणेनेत्यत आह – 

पदगौरवाद्योगविभागो गरीयान्।१३२।

प्रतिवाक्यं भिन्नवाक्यार्थबोधकल्पनेन गौरवं स्पष्टमेव। परन्तु भाष्यासम्मतेयम्। 'टाङसी'ति सूत्रस्थभाष्यविरुद्धा च। तत्र च इनादेशे इकारप्रत्याख्यानं योगविभागेनैव कृतिमिति बहवः॥१३२॥

 

 

कामाख्या

          सूत्र्यतामिति। त्रिसूत्रीक्रियतामित्यर्थः।पदगौरवादिति। अधिकोपादानप्रयुक्तपदगौरवादित्यर्थः। गौरवमुपपादयति। प्रतिवाक्यमिति। वाक्यजन्यबोधस्याधिक्ये तज्जनकसामग्र्या अप्याधिक्येन विभिन्नप्रत्यक्षादिकं प्रति प्रतिबन्धकताया अप्याधिक्येन गौरवम्। योगविभागे हि वाक्यार्थबोधसिद्धयेऽधिकवाक्यसंपादकाधिकस्य तिङन्तस्यापि कल्पनायां प्रतिपत्तिगौरवमिति भावः। भाष्यसम्मतेयमिति। तदनुक्तत्वादिति शेषः। ननु अप्रतिषिद्धमनुमतं भवतीति न्यायेनेयमस्त्वित्यत आह। टाङसीति। बह्वायाससाध्यं स्वल्पफलकं सुत्यज्यमिति लोकसिद्धतया लोकसिद्धेयमिति केचित्॥१३२॥

नास्ति।

ननु 'जभोऽचि' 'रधेश्व' 'नेट्यलिटी' त्येव सूत्र्यतां किं द्वीरधिग्रहणेनेत्यत आह -

 

‘रधिजभोरचि' और 'नेट्यलिटिरधेः' ये दोनों पाणिनि के सूत्र हैं । अष्टाध्यायी ये दोनों अव्यवहितपूर्वापरीभाव से पढ़े गये हैं । पहला सूत्र रघु और जभ् धातु अच् से पर में रहने पर नुम् का विधान करता है । दूसरा सूत्र लिट्लकार में विहित इट् से भिन्न इट् पर में रहने पर रघु धातु को इट् का निषेध करता है । इस पाठक्रम में रघ् धातु दो बार पढ़ा गया है । इससे लाघव तो यह होता कि उन दोनों सूत्रों की जगह 'जभोऽचि' 'रधेश्व' 'नेट्यलिटि' ऐसा सूत्र कर दिया गया होता तो दो बार 'रधि' ग्रहण नहीं करना पड़ता । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनी -

 

पदगौरवाद्योगविभागो गरियान् ॥ १३२ ॥

 

पदगौरव की अपेक्षा योगविभाग का गौरव अधिक होता है ।

 

प्रतिवाक्यं भिन्नवाक्यार्थबोधकत्वेन गौरवं स्पष्टमेव । परन्तु भाष्यासम्मतेयम् । टाङसि ७.१.१२ इति सूत्रस्थभाष्यविरुद्धा च । तत्र च इनादेशे इकारप्रत्याख्यातं योगविभागेनैव कृतिमिति बहवः ॥ १३२ ॥

 

योगविभाग में गोरव की अधिकता कैसे होती है, इस बात को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि योगविभाग करने पर प्रत्येक का अलग-अलग बाक्यार्थ बोध करना होता है । उन वाक्यार्थबोधों की सिद्धि के लिये वाक्यसम्पादक तिङन्त क्रियाओं की कल्पना भी अधिक करनी होती है । इस प्रकार योगविभागीय वाक्यजन्यबोध की अधिकता में उसके जनक कारणकलाप की अधिकता अनिवार्य है । उदाहरण के लिये उपर्युक्त दो सूत्रों की जगह तीन सूत्र करने पर तीनों का पृथक्-पृथक् वाक्यार्थबोध करना पड़ेगा और उस वाक्यार्थबोध के लिये 'जभोऽचि' सूत्र से 'अचि' इस अंश को ‘रधेश्च' योग में लाना पड़ेगा और 'रधेश्च' योग को 'नेट्यलिटि' इस सूत्र में लाना पड़ेगा । इस प्रकार योगविभाग करने पर प्रतिपत्ति का गौरव होता है जो पदगौरव की अपेक्षा गुरुतर है । इसलिये यथाश्रुत पाठ ही प्रस्तुत स्थल में ठीक है ।

 

यह बात लोकसिद्ध है कि जहाँ अल्पआयासासाध्य से इष्टसिद्धि संभव हो तो वहाँ बहुत आयाससाध्य की उपेक्षा कर दी जाती है । अर्थात् थोड़े प्रयास से यदि कार्यसिद्धि हो रही है तो अधिक प्रयास क्यों किया जाय ? इस प्रकार यह परिभाषा लोक सिद्ध है ।

 

नागेशभट्ट इस परिभाषा को नहीं मानते, इसलिये कह रहे हैं कि - यह परिभाषा भाष्यसम्मत नहीं हैं, क्योंकि योगविभाग के कारण होने वाले गौरव का उल्लेख भाष्य में कहीं भी नहीं किया गया है । इसके अतिरिक्त 'दादेर्धातोर्घः' सूत्र में भाष्यकार ने योगविभाग स्वीकार करके वहाँ उपदेश अर्थ का लाभ किया है जिससे 'अधोक्' में भष्भाव हुआ है और 'दामलिट्' में नहीं हुआ है । इस प्रकार भाष्यकार योगविभाग को गौरव नहीं मानते हैं ।

 

यदि कहा जाय कि भाष्यकार ने इस परिभाषा का खण्डन या प्रतिषेध भी नहीं किया है । ऐसी स्थिति में भाष्य में अप्रतिसिद्ध और लोकन्यायसिद्ध इस परिभाषा को स्वीकार करने में क्या आपत्ति है ? तो इस शंका का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि 'टाङसिङ सामिनात्स्याः ' (७.१.१२) इस सूत्र भाष्य से यह परिभाषा विरुद्ध भी है । वहाँ का विरोध इस प्रकार होता है - भाष्यकार ने वहाँ विचार किया कि टा के स्थान पर जो इन आदेश किया जा रहा है वहाँ इन आदेश न करके केवल 'न' आदेश ही किया जाय। ऐसा कह कर भाष्यकार ने कहा कि केवल न आदेश करने से 'वृक्षेण' 'रामेण' इत्यादि प्रयोग कैसे बनेंगे ? तो इस शंका के उत्तर में भाष्यकार ने वहां योगविभाग स्वीकार किया और कहा कि ‘बहुवचने झल्येत्' (७.३.१०३) के बाद 'ओसि च' (७.३.१०४) और इसके बाद 'आङि चाप' (७.३.१०५) जो सूत्र क्रम है इसमें 'आङि च' पृथक् योग करेंगे और ‘आपः' यह पृथक् यह पृथक् योग करेंगे । इन दोनों योगों में 'बहुवचने झल्येत्' सूत्र से एत् (एकार) की अनुवृत्ति करके आङ् अर्थात् टा विभक्ति पर में रहने पर एत्व होता है ऐसा अर्थ करेंगे । ऐसा अर्थ करने पर जहाँ टा को न आदेश करेंगे वहाँ भी एत्व होकर 'वृक्षेण' इत्यादि प्रयोग सिद्ध हो जायेंगे । ऐसी स्थिति में 'इन' आदेश की जगह 'न' आदेश ही करना चाहिये । इस प्रकार भाष्यकार ने योगविभाग को स्वीकार कर इनादेश में इकार प्रत्याख्यान किया है । इस परिभाषा को स्वीकार करने पर इस भाष्य से विरोध स्पष्ट ही हो जायेगा । क्योंकि यह परिभाषा योगविभाग को गौरवग्रस्त मानती है जब कि भाष्यकार योगविभाग को स्वीकार कर इनादेश के इकार का प्रत्याख्यान करते हैं । इस प्रकार भाष्यविरुद्ध होने के यह परिभाषा मान्य नहीं है ।

 

अब प्रश्न होता है कि इस परिभाषा के अभाव में दो बार 'रधि' ग्रहण का क्या औचित्य रह जाता है, तो इसका उत्तर यह है कि दो बार रधि धातु का ग्रहण यह ज्ञापन करता है कि 'क्वचिदेकदेशोऽप्यनुवर्तते' यह परिभाषा अनित्य है । अन्यथा 'रधिज़भोरचि' से रधि इस एकदेश की अनुवृत्ति 'नेट्यलिटिरधे:' इस सूत्र में करके कार्य चल सकता था तो ऐसी स्थिति में 'नेट्यलिटि' सूत्र का रधिग्रहण व्यर्थ ही हो जाता ।। १३२ ।।