बाधकान्येव निपातनानि
ननु 'सर्वनामानी'त्यत्र णत्वाभावनिपातनेऽपि लोके सणत्वप्रयोगस्य साधुत्वं स्यादत आह -
बाधकान्येव निपातनानि।११९।
तत्तत्कार्ये नाप्राप्ते निपातनारम्भात्। 'पुराणप्रोक्तेषु' इति निपातितपुराणशब्देन पुरातनशब्दस्य बाधः प्राप्तोऽपि पृषोदरादित्वान्नेति बोध्यम्। पुराणेति पृषोदरादिः पुरातनेति चेत्यन्ये। इयं सर्वादिसूत्रे भाष्ये स्पष्टा। अबाधकान्यपि निपातनानीति तु भाष्यविरुद्धम्॥११९ ॥
कामाख्या
बाधकान्येवेति। एवं च सर्वनामशब्दे णत्वाभावकरणेन पाणिनिना सर्वनामशब्दे णत्वं नेति वचनं बोधितम्। तेन लोके शास्त्रे च सर्वनामशब्दे 'पूर्वपदात् संज्ञाया'मिति णत्वाप्राप्तिः। नन्वेवं पुराणेति निपातनेन पुरातनशब्दस्य बाधः कस्मान्नेत्यत आह पुराणेति। भाष्यविरुद्धमिति। सर्वादिसूत्रे बाधकत्वस्यैव भाष्ये उक्तत्वात्॥११९॥
नास्ति।
हिन्दीटीका
ननु 'सर्वनामानि' (१.१.२७) इत्यत्र णत्वाभावनिपातनेऽपि लोके सणत्वप्रयोगस्य साधुत्वं स्यादत आह -
'सर्वादीनि सर्वनामानि' इस सूत्र में जो 'सर्वनामानि' यह पद है - इसमें 'पूर्वपदात्संज्ञायामगः' इस सूत्र से नकार को णकार प्राप्त रहता है, किन्तु पाणिनि ने यहाँ णकार न करके निपातन से णत्व का अभाव कर दिया है । यहाँ शंका होती है कि इस सूत्र में णत्वाभाव का निपातन करने पर भो लोक में (लौकिक प्रयोग में) कार सहित प्रयोग का साधुत्व होना ही चाहिये । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -
बाधकान्येव निपातनानि ॥ ११९ ॥
अपवाद की भांति निपातन भी 'येन नाप्राप्ति' न्याय से अपने उत्सर्ग के नित्य ही बाधक होते हैं । इसलिये लोक में भी सर्वनाम शब्द में णत्व नहीं होगा ।
तत्तत्कार्ये नाप्राप्ते निपातनारम्भात् । 'पुराणप्रोक्तेषु' (४.३.१०५) इति निपातितपुराणशब्देन पुरातन शब्दस्य बाधः प्राप्तोऽपि पृषोदरादित्वान्नेति बोध्यम् । पुराणेति पृषोदरादिः पुरातनेति चेत्यन्ये ।
इयं सर्वादिसूत्रे भाष्ये स्पष्टा । अबाधकान्यपि निपातनानीति तु भाष्यविरुद्धम् ॥ ११९ ॥
तत्तत् कार्यों (णत्वादिकार्यों) की अवश्य प्राप्ति में निपातन का आरम्भ करने के कारण 'येन नाप्राप्तिन्याय' से निपातन तत्तत् कार्यों का बाधक होता है । अब यहाँ यह शंका होती है कि निपातन बाधक ही होते हैं, इस बात को स्वीकार करने पर पुरा शब्द से भव अर्थ में 'सायं चिरम्' सूत्र से ट्यु प्रत्यय करने पर उसे तुडागम की अवश्यप्राप्ति होती है । उस अवश्य प्राप्त तुडागम का 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु' इस सूत्र में आये हुए 'पुराण' इस निर्देश से बाध कर दिया जाता है । ऐसी स्थिति में जब तुट् कभी होगा ही नहीं तो 'पुरातन' शब्द की सिद्धि किस प्रकार होगी ? इस शंका का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि यद्यपि पुरातन शब्द का बाध प्राप्त है, तथापि 'पृषोदरादित्वात् ' पुरातन शब्द सिद्ध हो जाता है । पृषोदरादि गण में पुरातन शब्द का पाठ मान लेने से यहाँ तुट् का बाध नहीं होता है । कुछ लोगों का कहना है कि 'पुरातन' शब्द 'सायं चिरम्' सूत्र से सिद्ध होता है । पुराण शब्द ही पृषोदरादिगणपठित है । इसी के लिये पृषोदरादित्वात् तुट् का अभाव कर दिया जाता है । कुछ अन्य लोगों का कहना है कि पुराण और पुरातन ये दोनों शब्द पृषोदरादि गण में हैं, इसलिये पृषोदरादित्वात् ही दोनों शब्दों की सिद्धि संभव होने के कारण निपातन का क्लेश नहीं करना पड़ता है, यह लाघव भी होता है । पृषोदरादि गण में पाठ होने के कारण तुट् के तकार का वैकल्पिक लोप होने से 'पुराण और पुरातन' दोनों की सिद्धि निर्बाध है । यह परिभाषा 'सर्वादीनि सर्वनामानि ' सूत्र के भाष्य में स्पष्ट है ।'पुरातन' शब्द की सिद्धि के लिये वृत्तिकार ने कहा है कि 'निपातनानि अबाधकानि' अर्थात् निपातन बाधक नहीं भी होते हैं । किन्तु यह बात 'सर्वादि सूत्र' के भाष्य से विरुद्ध है क्योंकि वहाँ कहा गया है कि निपातन बाधक ही होते हैं ।। ११९ ॥