एकस्या आकृतेश्चरितः प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भविष्यति
ननु 'गोष्वश्वेषु च स्वामी'त्यादिवत् 'गोष्वश्वानां च स्वामी'त्यपि स्यात् 'स्वामीश्वरे'ति सूत्रेण षष्ठीसप्तम्योर्विधानादत आह –
एकस्या आकृतेश्चरितः प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भविष्यति।१२७।
यत्रान्याकृतिकरणे भिन्नार्थत्वसम्भावना तद्विषयोऽयं न्याय इत्यन्यत्र विस्तरः। 'कृञ्चानुप्रयुज्यते' इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टेयम्॥१२७॥
कामाख्या
एकस्या आकृतेरिति। आकृतिः = स्वरूपं श्रावणप्रत्यक्षविषयतावच्छेदको धर्म इति यावत्। चरितः प्रयोगः। सहप्रयोग इत्यर्थः। अस्याः प्रवृत्तिस्थलमाह यत्रेति। व्याख्यानाच्चार्थवद्विषयेयम्। तथा च यदर्थबोधनाय पूर्वमेकः शब्दः प्रयुक्तस्तदर्थबोधनायैव शब्दान्तरे प्रयोक्तव्ये सति सम्भवे पूर्वोक्तसमानश्रावणप्रत्यक्षविषयतावच्छेदकक एव प्रयोक्तव्य इति पर्यवसितोऽर्थः। यथा अश्वानां स्वामी गोष्विति प्रयोगे। अश्वानां स्वामी गोषु तिष्ठतीत्यर्थान्तमपि। सम्भाव्यते इत्युभयोरेकशास्त्रविधेयत्वेऽपि एकस्मिन् वाक्ये न प्रवृत्तिर्भेदेन, किन्तु उभयत्र षष्ठ्येव सप्तम्येव वा प्रयोक्तव्येति भावः। कृञ् चेति । तत्र हि आमन्तस्य लिडन्तत्वेन लिट्परा एव भविष्यन्तीति व्यर्थमत्र लिड्ग्रहणमित्युक्तम्॥१२७॥
परिभाषार्थमञ्जरी
भिन्नार्थत्वसंभावनेति। अत एव सुध्युपास्यादौ धकारद्वित्वेऽपि यकारद्वित्वं भवत्येवेति भावः। तत्र द्वित्वे कृतेऽपि भिन्नार्थकताया अभावेनैतदप्रवृत्तेः॥१२७॥
हिन्दीटीका
ननु 'गोष्वश्वेषु च स्वामी'त्यादिवत् 'गोष्वश्वानां च स्वामी'त्यपि स्यात् स्वामीश्वर २.३.३९ इति सूत्रेण षष्ठीसप्तम्योर्विधानादत आह -
'गोषु अश्वेषु च स्वामी' यहाँ दोनों जगह सप्तमी विभक्ति हुई है, 'गवाम्, अश्वानाम् च स्वामी' यहाँ दोनों जगह षष्ठी विभक्ति हुई है । यहाँ शंका यह होती है कि इन प्रयोगों में 'स्वामीश्वराधिपति' इत्यादि सूत्र से षष्ठी और सप्तमी का विधान किया गया है । स्वामी आदि शब्दों के योग में यह सूत्र षष्ठी और सप्तमी का विधान करता है । ऐसी स्थिति में 'गोषु अश्वेषु च स्वामी' इस प्रयोग की भाँति 'गोषु अश्वानाञ्च स्वामी' इस प्रकार का एक जगह षष्ठी युक्त और दूसरी जगह सप्तमी विभक्ति से युक्त प्रयोग क्यों नहीं होता ? 'स्वामीश्वराधिपति' इत्यादि सूत्र से जब दोनों विभक्तियों का विधान किया जाता है तो एक जगह षष्ठी और दूसरी जगह सप्तमी घटित प्रयोग भी होना चाहिये । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -
एकस्या आकृतेश्चरितः प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भविष्यति ।। १२७ ॥
इस परिभाषा में 'एकस्या:' इस पद से पहले 'यत्र' पद का और 'द्वितीयस्या: ' इस पद से पहले 'तत्र' पद का समावेश है, ऐसा समझना चाहिये । आकृति का अर्थ स्वरूप अर्थात् श्रावणप्रत्यक्षविषयतावच्छेदकधर्म है । 'चरित:' इस पद का अर्थ ‘कृतः’ है । इसके बाद 'अतः ' पद का सन्निवेश करके इस प्रकार परिभाषा का अर्थ किया जाता है - जहाँ पर एक आकृति (स्वरूप) का प्रयोग कर दिया गया है, इसलिये वहाँ द्वितीय या तृतीय आकृति का प्रयोग नहीं होता । तात्पर्य यह है, कि जिस वाक्य में जिस अर्थवाले और जिस धर्मवाले शब्द का प्रयोग एक जगह कर दिया गया हो, उस वाक्य में दूसरी जगह भी उसी धर्मवाले और उसी अर्थ वाले शब्द का प्रयोग करना चाहिये, न कि उससे भिन्न अर्थवाले और भिन्न धर्मवाले का प्रयोग । 'गोषु अश्वेषु च स्वामी' इस वाक्य में गो शब्द से संप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है । अब यदि अश्व शब्द से षष्ठी का प्रयोग करते हैं तो यह भिन्न धर्म वाले और भिन्न अर्थ वाले का प्रयोग कहा जायेगा, जिससे वाञ्छित अर्थ की अपेक्षा भिन्न अर्थं की प्रतीति होने लगेगी जो सर्वथा अनभीष्ट हैं । इसलिये दोनों जगह षष्ठी का ही अथवा सप्तमी का ही प्रयोग करना चाहिये, न कि एक जंगह षष्ठी का और दूसरी जगह सप्तमी का प्रयोग ।
यत्रान्याकृतिकरणे भिन्नार्थत्वसम्भावना तद्विषयोऽयं न्याय इत्यन्यत्र विस्तरः । 'कृञ्चानुप्रयुज्यते' (३.१.४०) इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टेयम् ॥१२७॥
जहाँ अन्य आकृति का प्रयोग करने पर भिन्न अर्थ की सम्भावना हो, वहीं इस न्याय की प्रवृत्ति होती है । जैसे 'गोषु अश्वानां स्वामी' ऐसा प्रयोग करने पर 'अश्वों का स्वामी गायों में है' इस अर्थ की सम्भावना हो जाती है । इस अनभीष्ट अर्थ के निवारण के लिए प्रकरणादि का अन्वेषण करना पड़ेगा, जो एक प्रकार का गौरव होगा । इसकी अपेक्षा दोनों जगह यदि षष्ठी का या सप्तमी का प्रयोग किया जाता है तो असन्दिग्ध अर्थ की प्रतीति झटिति हो जाती है । यही इस परिभाषा का बीज 1 'कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि' इस सूत्र के भाष्य में यह परिभाषा स्पष्ट है । वहाँ कहा गया है कि आमन्त शब्द लिडन्त होता है अर्थात् उससे पर में लिट् प्रत्यय होता है ऐसी स्थिति में इस परिभाषा के द्वारा अनुप्रयुज्यमान कृ, भू, और अस् भी लिट्- परक ही होंगे । इस प्रकार इस परिभाषा से अनुप्रयुज्यमान कृ, भू, अस् की लिट्-परकता जब स्वयंसिद्ध है तब 'कृञ्चानुप्रयुज्यते' सूत्र में लिट् ग्रहण की आवश्यकता नहीं है । इस सूत्र में यह परिभाषा स्पष्ट की गई है ।। १२७ ॥