सम्प्रसारणं तदाश्रयं च कार्यं बलवत्
ननु 'विव्याधे'त्यादौ परत्वाद् 'हलादिः शेषे' वस्य सम्प्रसारणं स्यादत आह –
सम्प्रसारणं तदाश्रयं च कार्यं बलवत् ।१२८।
तदाश्रयं 'सम्प्रसारणाच्च' इति पूर्वरूपम्। वस्तुतो 'लिट्यभ्यासस्य' इति सूत्रे उभयेषां ग्रहणस्योभयेषां सम्प्रसारणमेव यथा स्यादित्यर्थकत्वेनेदं सिद्धमित्येषा व्यर्थेति 'लिट्यभ्यासस्य' इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। फलान्तरान्यथासिद्धिरपि तत्रैव भाष्ये स्पष्टा। 'णौ च संश्चङोः' इत्यादौ संश्चङोरित्यादि विषयसप्तमीति तत्रापि न दोष इत्यन्यत्र विस्तरः॥१२८॥
कामाख्या
संप्रसारणमिति। इदं वचनं नापूर्वमित्याह वस्तुत इति। उभयेषां ग्रहणस्येति। वच्यादीनां ग्रह्यादीनां चानुवृत्त्यैव सिद्धे कृतस्योभयेषां ग्रहणस्येति भावः। सम्प्रसारणमेवेति। संप्रसारणयोग्यानामिति शेषः। ननु अनेन वच्यादिग्रह्यादिविषयलक्ष्याणां सिद्धत्वेऽपि जुहुवतुरित्यादौ संप्रसारणपूर्वरूपे बाधित्वा परत्वादालोपापत्तिः शुश्रुवतुरित्यादावियङापत्तिश्चेत्यत आह फलान्तरेति। तत्रैव भाष्येति। नित्यत्वान्तरङ्गत्वाभ्यां संप्रसारणपूर्वरूपयोरेव पूर्वं प्रवृत्त्याऽदोष इत्युक्तम्। ननु श्विधातोर्णिजन्ताल्लुङि, चङि, द्वत्वे संप्रसारणात् पूर्वं वृद्ध्यायोरन्तरङ्गत्वात् प्रवृत्तौ। अशूशवदित्यस्यासिद्धिरत आह णौ चेति॥१२८॥
परिभाषार्थमञ्जरी
विषयसप्तमीति। अन्यथाऽन्तरङ्गत्वाद् वृद्ध्यायोः कृतयोः पश्चात्संप्रसारणेऽपि अशूशवदित्यस्यासिद्धिरिति भावः॥१२८॥
हिन्दीटीका
ननु 'विव्याधे'त्यादौ परत्वाद् 'हलादिः शेषे' वस्य सम्प्रसारणं स्यादत आह -
'व्यध् ताडने' धातु लिट् लकार लाने पर द्वित्व करके 'लिट्यभ्यासस्य’ सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके 'विव्याध' प्रयोग को सिद्ध किया जाता है । यहाँ शंका होती है कि 'व्यध् - व्यध् + अ ' इस स्थिति में सम्प्रसारण हलादिशेष दोनों की साथ ही प्राप्ति होने पर सम्प्रसारण की अपेक्षा 'हलादिः शेषः' के पर में होने के कारण पहले परत्वात् हलादिशेष ही किया जायेगा । इसके बाद अवशिष्ट वकार को ही सम्प्रसारण होगा। परिणाम यह होगा कि 'विव्याध' प्रयोग की सिद्धि नहीं हो सकेगी । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनायी गयी -
सम्प्रसारणं तदाश्रयं च कार्यं बलवत् ॥ १२८ ॥
सम्प्रसारण और तदाश्रयकार्य ('सम्प्रसारणच्च' सूत्र से किया जाने वाला पूर्वरूप) बलवान् होते हैं । इस परिभाषा को स्वीकार करने का फल यह हुआ कि प्रस्तुत प्रयोग में 'हलादि: शेषः' की अपेक्षा बलवान् होने के कारण पहले सम्प्रसारण ही हो गया । इसके बाद ' हलादिः शेषः ' करके 'विव्याध' प्रयोग की सिद्धि की गई ।
तदाश्रयं सम्प्रसारणाच्च ६.१.१०८ इति पूर्वरूपम् ।
वस्तुतो लिट्यभ्यासस्य ६.१.१७ इति सूत्रे उभयेषां ग्रहणस्योभयेषां सम्प्रसारणमेव यथा स्यादित्यर्थकत्वेनेदं सिद्धमित्येषा व्यर्थेति 'लिट्यभ्यासस्य' इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम् । फलान्तरान्यथासिद्धिरपि तत्रैव भाष्ये स्पष्टा । णौ च संश्चङोः ६.१.३१ इत्यादौ संश्चङोरित्यादि विषयसप्तमीति तत्रापि न दोष इत्यन्यत्र विस्त ॥ १२८ ॥
परिभाषा में आये हुए तदाश्रय शब्द का अर्थ है सम्प्रसारणाश्रयकार्य 'सम्प्रसारणाच्च' इस सूत्र से किया जाने वाला पूर्वरूप । ये दोनों कार्य अर्थात् सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाश्रय पूर्वरूप, अन्य कार्यों की अपेक्षा बलवान् होते हैं ।
यह परिभाषा कोई अपूर्ववचन नहीं है किन्तु सिद्ध बात का कथन मात्र है इसी बात को वस्तुतः शब्द से कह रहे हैं कि वस्तुतस्तु यह परिभाषा व्यर्थ है, क्योंकि 'लिट्यभ्यासस्य' इस सूत्र में वाच्यादि और ग्रह्यादि को अनुवृत्ति से ही कार्य चल सकता था तो ऐसी स्थिति में वहाँ 'उभयेषाम्' का ग्रहण क्यों किया गया ? वही ‘उभयेषाम्' का ग्रहण यह बोधित करता है कि 'वाच्यादि और ग्रह्यादि' के अभ्यास को सम्प्रसारण ही होता है । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी प्राप्त होता है वह नहीं होता है । इस प्रकार 'विव्याध' प्रयोग में हलादि शेष की अपेक्षा सम्प्रसारण का ही होना निश्चित हो जाता है । ऐसी स्थिति में इदं सिद्धम् = 'विव्याध' यह प्रयोग सिद्ध हो ही जाता है तो इसके लिये इस परिभाषा की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार यह परिभाषा व्यर्थ है, यह बात 'लिट्यभ्यासस्य' सूत्र के भाष्य में स्पष्ट है । वहाँ का प्रकरण इस प्रकार है - 'विव्याध' प्रयोग की सिद्धि के लिये वार्तिककार ने वार्तिक बनाया 'अभ्याससम्प्रसारणं हलादि: शेषाद् विप्रतिषेधेन । इस पूर्वविप्रतिषेधपरक वार्तिक का खण्डन करते हुए भाष्यकार ने कहा कि 'न वा सम्प्रसारणाश्रयबलीयस्त्वादन्यत्रापि' अर्थात् पूर्ववार्तिक की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सम्प्रसारणाश्रयकार्यं बलवान् होते हैं । इसका प्रयोजन अन्यत्र भी है । अन्यत्र से तात्पर्य रमागम, आकार का लोप, इयङ् और यण् से है । भाष्यकार ने कहा है 'प्रयोजनं रमाल्लोपेयङ्यण:' । 'भृष्ट: ' 'भृष्टवान्' इन प्रयोगों में सम्प्रसारण को बाध कर परत्वात् 'भ्रस्जोरोपधयो रमन्यतरस्याम्' सूत्र से रम् का आगम प्राप्त है । ह्वे धातु लिट् लकार में 'जुहुवतु:' प्रयोग में 'आतो लोप' सूत्र से आकार का लोप प्राप्त होता है । यदि आकार का लोप हो जाता है तो उसके स्थानिवद्भाव से उकार को उवङ् नहीं हो सकेगा, क्योंकि उवङ् अजादि प्रत्यय पर में रहने पर होता है । इस प्रकार यहाँ प्रकार यहाँ उवङ् का अभाव और यण् की प्राप्ति होने लगेगी ।
इसी प्रकार श्वि धातु से लिट् लकार लाने पर जो 'शुशुवतुः' प्रयोग बनता है, यहाँ सम्प्रसारण से पहले इयङ् आदेश की प्राप्ति होती है और सम्प्रसारण के बाद प्राप्त पूर्वरूप को परत्वात् बाध कर यण् प्राप्त होता है, यहाँ 'विभाषा श्वे ' सूत्र से सम्प्रसारण होता है ।
इन सब कार्यों को बाधने के लिये तथा सम्प्रसारण और तदाश्रयकार्य को करने के लिये इस परिभाषा का आश्रयण करना चाहिये, ऐसा भाष्यकार ने कहा । ऐसा कह कर भाष्यकार ने आगे कहा कि सम्प्रसारण के साथ जो विधियाँ प्राप्त हैं उनकी अपेक्षा सम्प्रसारण नित्य है, इसलिये नित्यत्वात् उनको बाधकर सम्प्रसारण स्वयमेव हो जायेगा । इसी प्रकार 'सम्प्रसारणाच्च' सूत्र का पूर्वरूप अन्यविधियों की अपेक्षा अन्तरङ्ग है, इसलिये ये अन्तरङ्गत्वात् उन्हें बाध लेगा । इस प्रकार नित्यत्वात् और अन्तरङ्गत्वात् सम्प्रसारण और तदाश्रय कार्य की सिद्धि करके भाष्यकार ने इस परिभाषा का प्रत्याख्यान कर दिया ।
इस प्रकार 'विव्याध' इस फल की अपेक्षा 'भृष्ट:, जुहुवतु:' इत्यादि जो इस परिभाषा के फलान्तर थे, उनकी अन्यथासिद्धि = प्रकारान्तर से सिद्धि उसी भाष्य में स्पष्ट कर दी गई है ।
यदि कहा जाय कि इस परिभाषा को स्वीकार नहीं करते हैं तो ण्यन्त श्वि धातु से लुङ् लकार लाने पर 'च्ल और चिङ्' आदेश के बाद 'अ-श्वि-इ-अत्' इस स्थिति में 'णौ च संश्वङोः' (६.१.३१) सूत्र से क्रियमाण सम्प्रसारण की अपेक्षा ‘अचो ञ्णिति' की वृद्धि अन्तरङ्ग होने के कारण अन्तरङ्गत्वात् यदि पहले वृद्धि और आयादेश कर देते हैं तो 'अशूशवत्' यह वाञ्छित प्रयोग सिद्ध नहीं हो सकेगा, तो इस शंका को उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि सम्प्रसारणविधायक उक्त सूत्र में जो 'संश्वङोः' यह पद है इसमें विषयसप्तमी है । विषयसप्तमी स्वीकार करने का परिणाम यह होता है कि चङ् की विषयता में ही सम्प्रसारण हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सम्प्रसारण की अपेक्षा वृद्धि की जो अन्तरङ्गता हो रही थी, वह अन्तरङ्गता विषयसप्तमी मानने से समाप्त हो जाती है । इसलिए पहले सम्प्रसारणादि कार्य करके पीछे द्वित्व आदि कार्य किया जाता है जिससे 'अशूशवत्' प्रयोग की सिद्धि हो जाती है । यह बात अन्यत्र = भाष्यादि में स्पष्ट है ।। १२८ ॥