अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः
अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः।१३३।
'एओङ्' 'ऐऔच्' सूत्रयोर्ध्वनितैषा भाष्ये। तत्रानेकपदघटितसूत्रे प्रायेण पदलाघवविचार एव, न तु मात्रालाघवविचार इति 'ऊकालोऽच्' 'अपृक्त एकाल्' इत्यादिसूत्रेषु भाष्ये ध्वनितम्। तत्र हि सूत्रे - 'अल्ग्रहणहल्ग्रहणयोर्विशेषविचारे संज्ञायां हल्ग्रहणं 'ण्यक्षत्रिये'ति सूत्रेऽणिञोरिति वाच्यमिति त्रीणि पदान्यल्ग्रहणे, तदेकं स्वादिलोपे हल्ग्रहणं ण्येति सूत्रेऽणिञोरिति न वाच्यमपृक्तस्येति वाच्यमिति त्रीण्येव पदानीति नास्ति लाघवकृतो विशेष' इत्युक्तम्। 'अचि श्नु' इति सूत्रे इण इत्येव सिद्धे य्वोरिति सम्मृद्य ग्रहणान्न पूर्वेणेण्ग्रहणम्। तत्र विभक्तिनिर्देशे सम्मृद्य ग्रहणे च सार्धास्तिस्रो मात्रा इण्ग्रहणे तिस्रो मात्रा इति लणसूत्रे भाष्योक्तेः। तथा 'ओतः श्यनि' इति सूत्रे शितीति न वक्तव्यम्। तत्राप्ययमर्थः- 'ष्ठिवुक्लमु' इति सूत्रे शितीति न कर्तव्यं भवतीति भाष्ये न केवलं मात्रालाघवं यावदयमप्यर्थम् इति कैयटोक्तेः प्रायेणेति शिवम्॥१३३॥
इति शास्त्रशेषनामकतृतीयप्रकरणम्।
इति श्रीमन्महमहोपाध्यायशिवभट्टसतीगर्भजनागोजीभट्टकृतः परिभाषेन्दुशेखरः समाप्तः।
कामाख्या
कामाख्या
भाष्ये बहुषु स्थलेषु लाघवोपन्यासेन सर्वोपकारकतयाऽन्ते उपन्यासार्हमाह अर्धमात्रेति। अर्धमात्रालाघवहेतुकं सुखं पुत्रोत्सवं, तज्जन्यसुखसदृशं वैयाकरणा मन्यन्ते इत्यर्थः। अर्धमात्रालाघवेनापि पुत्रोत्सवं मन्यन्ते किमुत ततोऽधिकानुपादानप्रयुक्तलाघवेनेति तात्पर्यार्थः। ध्वनितैषेति। 'एच इगि'त्यस्य प्रत्याख्यानावसरे अर्धैकारार्द्धौकारौ यदि हि स्यातां तावेवायमुपादिशेदित्युक्तम्। मात्रापदलाघवविषये व्यवस्थामाह तत्रानेकेति। यदुक्तं पूर्वत्र प्रायेणेति तस्य फलमाह अचीति। अन्यत् सर्वं सुगममिति शम्॥१३३॥
इति कामाख्यानाम्नी परिभाषेन्दुशेखरविवृतिः समाप्तिं नीता। शिवपादार्पिता। सतां मोदाय भूयादिति शिवम्॥
यस्यासीत्प्रपितामहः सुधिषणो वंशीधरो यद्वशं,
नीता गीरसनाङ्गणे नियमिता खेलत्यजस्रं मुदा ।
सान्वर्थश्चपितामहः सकरुणः श्रीबुद्धिनाथाभिधस्
तस्यासीत्स दिगम्बरश्च जनको माता ह्युषा सुव्रता॥१॥
काशापुरीमधिवसन् निखिलागमानां
वेत्ता समस्तभुवने सुयशा नितान्तम्
नामानुरूपवपुरुद्भटवाग्विलासः
शैवो गुरः शिवकुमार इति प्रसिद्धः॥२॥
सर्वतन्त्रस्वतन्त्रश्च विख्यातः शिवशङ्करः ।
यस्याग्रजस्तस्य कृतिर्हरिशङ्करशर्मणः॥३॥
भूतवेदवसुचन्द्रगेशके ज्येष्ठशुक्लबुधवासरे तिथौ ।
पूर्णचन्द्रमसि विष्णुमन्दिरे पूर्णतामगमदियं कृतिः॥४॥
श्रीमहावीरदासाद्धि विष्णुविद्यालयाधिपात् ।
सारस्वतकुलोत्पन्नात् सर्वसाहाय्यमावहत्॥५॥
॥इति सतीशः पायात्॥
परिभाषार्थमञ्जरी
परिभाषार्थमञ्जरी
लण्सूत्रे इति। तत्र हि अणिण्ग्रहणेषु संदिग्धज्ञापकेन सर्वत्राण्ग्रहणेषु सन्देहनिवृत्तिमभिधाय इण्ग्रहणे तन्निवारणायैवमुक्तम्। एवञ्चाणिण्ग्रहणेषु सर्व्वत्र ज्ञापकादिना निर्वाहः। तत्र उक्तं किं पुनर्वर्णोत्पत्ताविवायं पुनर्णकारोऽयं द्विरनुबध्यते। एतदेव ज्ञापयत्याचार्य्यो भवत्येषा परिभाषा व्याख्यानतो विशेषप्रतिपतत्तिर्नहि संदेहादलक्षणमिति। वर्णोत्पत्तिर्वर्णोच्छेद इति कैयटः। अत्रांशेऽन्यपरिभाषाव्याख्यानमकृत्वा अर्द्धमात्रालाघवेनेति परिभाषा व्याख्यानद्वारा ग्रन्थोपक्रमग्रन्थान्तयोर्व्याख्यानत इति परिभाषासंदेशो दर्शितोऽग्रे 'अचि श्नु धात्वि'त्युपादनेन। तत्फलन्तु तन्मध्यपतितानामुत्सर्गापवादभूतानां परिभाषाणां मध्ये कस्याः क्व प्रवृत्तिः क्व नेति सर्वमनयैव निर्व्वाह्यमिति प्रदर्शनमेव। किञ्च ग्रन्थोपक्रमे प्राचीनवैयाकरणवाचनिकानीति वदता तेषाम्मते सर्वासां वाचनिकत्वं बोधितम्। तच्च न युक्तम्। अर्द्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवतुल्यहर्षोपादानात् इत्यपि सूचनं ग्रन्थकृता कृतमिति विद्वन्मान्या विदांकुर्वन्त्विति सकलार्थसिद्धिः॥१३३॥
परिभाषारसास्वादबद्धादरधियामुना।
भीमेन रचिता सेयं परिभाषार्थमञ्जरी॥
इति श्री[1]मद्गलगलेकरोपनामकमाधवाचार्य्यतनयभीमप्रणीता परिभाषार्थमञ्जरी समाप्ता।
हिन्दीटीका
अब ग्रन्थ के अन्त में मङ्गलार्थ, लाघव को आनन्दजनिका बतानेवाली परिभाषा लिख रहे हैं ।
अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः ॥ १३३ ॥
'अर्धमात्रालाघवेन' इस पदं में जो तृतीया विभक्ति है वह हेतु अर्थ में हुई है । पुत्रोत्सव पद लक्षणा के द्वारा पुत्रजन्मजन्य आनन्दसदृश आनन्द का बोधक है । इस प्रकार इस परिभाषा का अर्थ होता है कि अर्धमात्रा के लाघव से होने वाला जो सुख है वह वैयाकरणों के लिये पुत्रजन्म से होने वाले सुख के समान है । अर्थात् वैयाकरण लोग अर्धमात्रा के लाघव को पुत्रोत्सव मानते हैं ।
'एओङ्' 'ऐऔच्' सूत्रयोर्ध्वनितैषा भाष्ये । तत्रानेकपदघटितसूत्रे प्रायेण पदलाघवविचार एव, न तु मात्रालाघवविचार इति ऊकालोऽच् १.२.२७ अपृक्त एकाल् १.२.४१ इत्यादिसूत्रेषु भाष्ये ध्वनितम् । तत्र हि सूत्रे - 'अल्ग्रहणहल्ग्रहणयोर्विशेषविचारे संज्ञायां हल्ग्रहणं ण्यक्षत्रिया २.४.५८ इति सूत्रेऽणिञोरिति वाच्यमिति त्रीणि पदान्यल्ग्रहणे, तदेकं स्वादिलोपे हल्ग्रहणं ण्येतिसूत्रेऽणिजोरिति न वाच्यमपृक्तस्येति वाच्यमिति त्रीण्येव पदानीति नास्ति लाघवकृतो विशेष' इत्युक्तम् ।
'एओङ्' 'ऐओच्' इन सूत्रों के भाष्य में यह परिभाषा ध्वनित है । वहाँ यह विचार किया गया कि एकार आदि जो सन्ध्यक्षर हैं उनके पाठ के अवसर पर वर्णसमाम्नाय में तपरकरण तो किया नहीं गया है, इसलिये एकार और ओकार से एकमात्रिक एकार और ओकार अर्थात् अर्ध एकार और अर्ध ओकार का भी ग्रहण होगा । ऐसी स्थिति में जहाँ एच् को ह्रस्व आदेश के प्रसंग में अर्ध एकार और अर्ध ओकार आदेश होने लगेंगे । इसलिये उनकी निवृत्ति के लिये 'एच इग्ह्रस्वादेशे' यह सूत्र करना चाहिये जिससे एच के स्थान पर ह्रस्व आदेश करते समय इक् ही हो सके । ऐसा कह कर भाष्यकार ने कहा कि 'एच इग्हस्वादेशे' सूत्र की आवश्यकता नहीं है । इसके अभाव में भी एच् के स्थान पर इक् ही ह्रस्व होगा, न कि अर्ध एकार और अर्ध ओकार । क्योंकि न तो लोक में और न वेद में ही अर्ध एकार और अर्ध ओकार की सत्ता है । यदि ये दोनों होते तो आचार्य के द्वारा लाघवात् उन्हीं का उपदेश किया गया होता। इसलिये अर्ध एकार और अर्ध ओकार की सत्ता न होने कारण अगत्या एच् के स्थान पर इक् ही ह्रस्व होगा । तस्मात् 'एच इग्ह्रस्वादेशे' की अनावश्यकता है । इस प्रसंग में भाष्यकार का यह कथन कि 'यदि अर्ध एकार और ओकार होते तो उन्हीं का उपदेश किया गया होता' से स्पष्ट होता है कि वैयाकरणों के लिये थोड़ा भी लाघव आदरणीय होता है ।
मात्रालाघव और पदलाघव के विषय में व्यवस्था बताते हुए कह रहे हैं कि - अनेक पद वाले सूत्रों में प्रायः पदलाघव का ही विचार किया जाता है, मात्रालाघव का नहीं । यह बात ‘ऊकालोऽच्' 'अपृक्त एकाल्' इत्यादि सूत्रों के भाष्य में ध्वनित है । ध्वनन का प्रकार इस प्रकार है -
‘ऊकालोऽच्' सूत्र के भाष्य में भाष्यकार ने यह विचार किया कि ह्रस्व संज्ञाविधान का क्या फल है ? इसके उत्तर में कहा कि 'एच इक् ह्रस्वादेशे' सूत्र में जहाँ ह्रस्वादेश विधेय है वहाँ इस संज्ञा का प्रयोजन है । यदि ह्रस्व संज्ञा नहीं करेंगे तो 'ह्रस्वो नपुंसके' 'णौ चङि' और 'ह्रस्व:' इन तीन सूत्रों में 'एच इक्' ऐसा कहना पड़ेगा जो एक प्रकार का गौरव होगा । इसके बाद पुनः भाष्यकार ने कहा कि उक्त तीनों जगह 'एच इक्' ऐसा करने से छः पद कहने पड़ते हैं । इसकी अपेक्षा ह्रस्वविधान करने में ही गौरव है क्योंकि इस पक्ष में ह्रस्वविधायक 'ऊकालोऽच्' सूत्र में ह्रस्व ग्रहण करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त उक्त तीनों सूत्रों में ह्रस्व ग्रहण करना होता है । इसके बाद 'एच इग् ह्रस्वादेशे' इस सूत्र के चार पद, ये सभी मिलकर ह्रस्व संज्ञा विधान पक्ष में आठ पद करने होते हैं । इस प्रकार इस पक्ष में पद का गौरव होता है । इससे स्पष्ट है कि यहाँ पदलाघव का ही विचार किया गया है । इसी प्रकार 'अपृक्त एकाल् प्रत्यय:' इस सूत्र के भाष्य में अल और हल् ग्रहण के सम्बन्ध में विशेष विचार करते हुए भाष्यकार ने कहा कि संज्ञायाम् = अपृक्त संज्ञा में जो अल् ग्रहण किया गया है उसकी जगह लाघवात् हल ग्रहण करना चाहिये । ऐसा करने से एक हल् को अपृक्त संज्ञा होगी । इसका परिणाम यह होगा कि 'हल्ङयाब्भ्यः' सूत्र में हल् ग्रहण नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि जब अपृक्त संज्ञा हल को हो रही है तब अपृक्त का लोप कहने से ही हल् का लोप हो जायेगा । किन्तु अपृक्त संज्ञा में हल् ग्रहण करने पर 'ण्यक्षत्रियार्षजित:' इस सूत्र में अण् और इञ् ग्रहण करना होता है क्योंकि ये हल नहीं हैं । इस प्रकार इस पक्ष में अपृक्त संज्ञा में हल् ग्रहण तथा 'ण्यक्षत्रिय' सूत्र में अण् और इञ् ग्रहण इन तीन पदों का ग्रहण करना पड़ता है । यदि अपृक्त संज्ञा में अल् ग्रहण करते हैं तब 'हलङ्याब्भ्यः' सूत्र हल् ग्रहण करना पड़ता है जिससे अपृक्त हल् का लोप हो । इसके अतिरिक्त 'ण्यक्षत्रियार्ष ' सूत्र में अपृक्त ग्रहण करने से ही कार्य चल सकता है क्योंकि 'अण् और इन्' ये दोनों अपृक्त ही हैं । इस प्रकार वहाँ अण् और इञ् का ग्रहण नहीं करना पड़ता है । इस प्रकार इस पक्ष में अपृक्त संज्ञा में अल् ग्रहण, स्वादि लोप में हल् ग्रहण और 'ण्यक्षत्रिय' सूत्र में अपृक्त ग्रहण करना पड़ता है । इस तरह दोनों पक्षों में तीन-तीन पद करने पड़ते हैं, इसलिये किसी भी पक्ष में लाघवकृत विशेषता नहीं है ऐसा कहा गया है । इस भाष्य से स्पष्ट है कि अनेक पद वाले सूत्रों में पदलाघव का ही विचार किया जाता है । वहाँ मात्रा के गौरवलाघव का विचार नहीं किया जाता है ।
अचि श्नु ६.४.७७ इति सूत्रे इण इत्येव सिद्धे ग्वोरिति सम्मृद्य ग्रहणान्न पूर्वेणेण्ग्रहणम् । तत्र विभक्तिनिर्देशे सम्मृद्य ग्रहणे च सार्धास्तिस्रो मात्रा इण्ग्रहणे तिस्रो मात्रा इति लणसूत्रे भाष्योक्तः । तथा ओतः श्यनि ७.३.७१ इति सूत्रे शितीति न वक्तव्यम् । तत्रायमर्थः- ष्ठिवुक्लमु ७.३.७५ इति सूत्रे शितीति न कर्तव्यं भवतीति भाष्ये न केवलं मात्रालाघवं यावदयमप्यर्थ इति कैयटोक्तः प्रायेणेति शिवम् ॥ १३३ ॥ इति शास्त्रशेषनामकं तृतीयं प्रकरणम् ॥ इति श्रीमन्महामहोपाध्यायशिवभट्टसतीगर्भजनागोजी भट्टकृतः परिभाषेन्दुशेखरः समाप्तः ।
पहले कह आये हैं कि अनेकपदघटित सूत्रों में प्रायः पदलाघव का ही विचार किया जाता है । इसमें 'प्रायः' पद का फल देते हुए कह रहे हैं कि प्राय: पदलाघव का विचार होता है. अर्थात् कहीं-कहीं अनेकपदघटित सूत्रों में मात्रालाघव का भी विचार किया जाता है । जैसे - 'अचि श्नु' (६.४.७७) सूत्र से इकार और उकार को इयङ् और उवङ् आदेश किया जाता है । यहाँ स्थानी के रूप में 'य्वो:' यह निर्देश किया गया है । इश्च उश्व इति यू तयो 'य्वो:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यहाँ द्वन्द्वसमास करके 'य्वो:' इस रूप में स्थानी का समृद्य ग्रहण किया गया है । समृद्य ग्रहण करने का तात्पर्य यह है कि यहाँ यणादेश के द्वारा इकार और उकार की निवृत्ति करके 'वो' यह निर्देश किया गया है । यहाँ शंका होती है कि जब इकार और उकार को ही इयङ् और उवङ् करना है तो वहाँ 'इण:' ऐसा स्थानी का पाठ करना चाहिये । इण् कहने से इकार और उकार ये दो ही वर्ण लिये जाते हैं । ऐसी स्थिति में समृद्य = आदेश के द्वारा स्थानी की निवृत्ति करके 'वो' ऐसा पाठ क्यों किया गया ? इससे विदित होता है कि इण् प्रत्याहार पूर्व णकार तक नहीं लिया किन्तु परणकार तक इण् प्रत्याहार लिया जाता है । अब यदि 'इणः' ऐसा पाठ करते तो इण् प्रत्याहार के सारे वर्णों को इयङ् उवङ् की अतिप्रसक्ति होने लगती । इसलिये केवल इकार और उकार के ग्रहण के लिये 'य्वोः' यह निर्देश सार्थक होता है । यदि इण् प्रत्याहार पूर्वणकार तक होता तो उसमें केवल दो ही वर्ण आते । ऐसी स्थिति में 'य्वो:' इस निर्देश की अपेक्षा 'इण:' इस निर्देश में ही लाघव था । क्योंकि 'य्वोः ' इस विभक्त्यन्त पद में जहाँ स्थानी का समृद्य ग्रहण - (आदेश के द्वारा निवृत्ति करके ग्रहण) किया गया है इसमें साढ़े तीन मात्राएँ होती हैं जब कि 'इण:' इस विभक्त्यन्त पद में तीन मात्राएँ होती हैं । किन्तु 'इणः' ऐसा लघुन्यास न करके 'य्वो:' यह जो मात्राकृत गुरुन्यास किया गया है इससे यही सिद्ध होता है कि इण् प्रत्याहार पर णकार तक होता है । यह बात लण् सूत्र के भाष्य में कही गई है ।
यहाँ भाष्यकार ने मात्राकृत गौरव को ही गौरव माना है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं-कहीं मात्राकृत गौरवलाघव का भी विचार अनेकपदघटित सूत्रों में किया जाता है ।
इसी प्रकार ‘ओतः श्यनि' सूत्र के भाष्य में कहा गया है कि 'शितीति न वक्तव्यम्' इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ 'ओतः श्यनि' ऐसा सूत्र है वहाँ 'ओतः शिति' ऐसा सूत्र कर देना चाहिये । इसका परिणाम यह होगा कि इसके आगे वाले सूत्र 'ष्ठिवुक्लमुचमां शिति' (३.४.७५) में शिति ग्रहण नहीं करना पड़ेगा । इस भाष्य से विदित होता है कि भाष्यकार पद लाघव को महत्व देते हैं । कैयट ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि न केवल मात्रालाघव ही लाघव है किन्तु अयमपि अर्थः = पदलाघव भी लाघव है । इससे स्पष्ट होता है कि अपने-अपने स्थानों पर दोनों लाघवों का महत्त्व है । इसीलिये नागेश भट्ट ने मूल में ही लिख दिया कि 'अनेकपदघटितसूत्रे प्रायेण पदलाघवविचार एव' अर्थात् अनेकपदघटित सूत्र में प्रायः पदलाघव का ही विचार किया जाता है । प्रायः ग्रहण से कहीं-कहीं मात्रालाघव का भी विचार किया ही जाता है । जैसे - 'अचि श्नु' सूत्र में मात्रालाघव का विचार किया गया है । इस प्रकार मात्रालाघव और पदलाघव दोनों में भाष्य की सम्मति उपलब्ध होने के कारण भैरवीकार ने परिभाषा के भीतर अपि शब्द के अर्थ का भी सन्निवेश किया है । उनके अनुसार 'अर्धमात्रालाघवेनापि' ऐसा पाठ मानकर इस परिभाषा का ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जब वैयाकरणों के लिये अर्धमात्रा का लाघव भी सुखदायक होता है तो पद का लाघव तो अवश्यमेव सुखदायक होगा । इति शिवम् ॥ १३३ ॥
इस प्रकार शास्त्रशेष नामक तृतीय प्रकरण समाप्त हुआ ।
इस प्रकार महामहोपाध्याय सतीगर्भज शिवभट्ट सुत नागोजीभट्ट कृत परिभाषेन्दुशेखर सम्पूर्ण हुआ ।
विश्वनाथ मिश्र कृत सुबोधिनी हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।