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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

क्वचिद्वकृतिः प्रकृतिं गृह्णाति

यत्तु – 

क्वचिद्वकृतिः प्रकृतिं गृह्णाति।१२९।

तेन 'निसमुपविभ्यो ह्वः' इत्यत्र ह्वाग्रहणेन ह्वेञो ग्रहणसिद्धिः॥१२९॥

 

 

कामाख्या

प्राचीनसम्मते धातूपकारिके परिभाषे खण्डयति यत्विति। उपह्वयते इत्यत्र 'निसमुपविभ्यो ह्व'रिति सूत्रे कृतात्वस्यैव ह्वेत्यस्यानुकरणेन तस्यैव बोध्यतया परिभाषाऽभावे आत्मनेपदं न स्यादित भावः॥१२९॥

नास्ति।

अब प्राचीनसम्मत वाचनिक दो परिभाषाओं के खण्डन के उद्देश्य से उनका उपक्रम करते हुए कह रहे हैं -

 

यत्तु - क्वचिद्विकृतिः प्रकृति गृह्णाति ॥ १२९ ॥

 

कहीं पर विकृति से प्रकृति का ग्रहण होता है ।

 

तेन 'निसमुपविभ्यो ह्वः' (१.३.३०) इत्यत्र ह्वाग्रहणेन ह्वेञो ग्रहणसिद्धि: ।

 

इस परिभाषा को स्वीकार करने का फल यह होता है कि 'निसमुपविभ्यो ह्नः ' इस सूत्र में ह्वे के विकारभूत ह्वा शब्द से उसकी प्रकृति 'हे' धातु का ग्रहण होता है, इसीलिये 'निह्वयते' प्रयोग में आत्मनेपद की सिद्धि होती है ।१२९।