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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

क्वचित्समुदायेऽपि

नन्वेवं संयोगसंज्ञासमाससंज्ञाऽभ्यस्तसंज्ञा अपि प्रत्येकं स्युरत आह – 

क्वचित्समुदायेऽपि।११७।

'गर्गाः शतं दण्ड्यन्ताम्, अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ती'त्यादौ दण्डनवत्। लक्ष्यानुरोधेन च व्यवस्था॥११७॥

 

कामाख्या

         स्युरिति। तथा सति। दृषत्करोतीत्यत्र संयोगान्तलोपस्य, राजपुरुष इत्यादिसमासपूर्वपदस्यापि समाससंज्ञायां समासस्येत्यन्तोदात्तत्वस्य, पूर्वस्याभ्यस्तसंज्ञायां जुहोतीत्यादावाभ्यस्तानामादिरित्यादिस्वरस्य चापत्तिः स्यात्। समुदायेऽपीति। 'उभे अभ्यस्त'मित्यत्रोभे ग्रहणसामर्थ्यादुभपदार्थतावच्छेदकं द्वित्वम्, सहस्रपेत्यत्र सहग्रहणसामर्थ्यात् सहार्थसाहित्यम्, 'हलोऽनन्तरा' इत्यत्रानन्तरा इत्युक्तेर्हल इत्यत्रैकशेषप्रयोजकीभूतं साहित्यं च विवक्षितमिति न प्रत्येकं संज्ञेति। अर्थिनश्च राजान इति। तथा च शतस्य विधेयत्वेन प्राधान्यात्तस्य अप्रधानगर्गानुरोधेनावृत्तिर्न्न न्याय्येति भावः। उक्तयोर्न्याययोः कथं व्यवस्थेत्यत आह। लक्ष्यानुरोधेनेति॥११७॥

नास्ति।

नन्वेवं संयोगसंज्ञासमाससंज्ञाऽभ्यस्तसंज्ञा अपि प्रत्येकं स्युरत आह - 

एवम् = इस प्रकार 'प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्ति:' इस न्याय को स्वीकार करने पर यह दोष आता है कि गुणवृद्धि संज्ञाओं की भाँति संयोग संज्ञा भी एक-एक हल् वर्ण को होने लगेगी । इस प्रकार समास संज्ञा भी 'राजन् + ङस्' को पृथक् और 'पुरुष + सु' को पृथक् होने लगेगी । इसी प्रकार अभ्यस्त संज्ञा जो समुदाय को होती है वह भी द्वित्व स्थल में दोनों को पृथक्-पृथक् होने लगेगी । इस प्रकार की आशंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -

क्वचित्समुदायेऽपि ॥ ११७ ॥

कहीं पर वाक्य की परिसमाप्ति समुदाय में भी होती है ।

'गर्गाः शतं दण्डयन्ताम्, अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्तीत्यादौ दण्डनवत् । लक्ष्यानुरोधेन च व्यवस्था ॥ ११७ ॥

समुदाय में वाक्य की परिसमाप्ति का दृष्टान्त देते हुए कह रहे हैं कि 'गर्गाः शतं दण्ड्यन्ताम्, अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ति' अर्थात् 'गर्ग के गोत्र वालों से शत मुद्रा दण्ड रूप में ली जाय, राजा लोग हिरण्य के अर्थी होते हैं' इस वाक्य के सुनने पर यह सन्देह होता है कि क्या सभी गायों से (गार्ग्यसमुदाय से) सौ रुपया लिया जाय या प्रत्येक गाग्यं से सौ-सौ रुपया लिया जाय ? ऐसी शंका होने पर यह विचार हुआ कि यहाँ 'शतम्' यह प्रधान कर्म है और 'गर्गाः' यह अप्रधान कर्म है । यदि प्रत्येक गार्ग्य से सौ-सौ रुपया लिया जाता है तब यह अप्रधान गार्ग्य के अनुरोध पर प्रधान शत की आवृत्ति होगी, किन्तु यह उचित नहीं है कि अप्रधान के अनुरोध पर प्रधान की आवृत्ति की जाय । इसलिये एक-एक गार्ग्य का शतदण्डन न होकर गार्ग्य समुदाय से शतदण्डन किया जाता है । स्वीकारविशेषानुकूल व्यापार ही दण्डन कहा जाता है । यह दण्डन 'गार्ग्य' समुदाय से सौ रुपया ग्रहण स्वरूप है । इस प्रकार देखा जाता है कि यहाँ समुदाय में ही वाक्य की परिसमाप्ति हो रही है । इसी प्रकार अवतरण में कहे गये स्थलों पर तत्तद् संज्ञाएँ भी समुदाय की ही होती है; प्रत्येक की नहीं होती । इसलिये कोई दोष नहीं होता ।

कुछ लोगों का कहना है कि अभ्यस्त संज्ञा में 'उभे' ग्रहण से समास संज्ञा में 'सह' ग्रहण से तथा संयोग संज्ञा में 'अनन्तर' ग्रहण करने से ही ये संज्ञाएँ प्रत्येक की न होकर समुदाय की ही होंगी । इस प्रकार अवतरणोक्त दोष स्वयमेव नहीं है तो इस परिभाषा का अनन्यथासिद्ध फल नहीं है ।

वस्तुतस्तु ‘उभे अभ्यस्तम्' इस सूत्र में 'उभे' ग्रहण का प्रत्याख्यान कर दिया गया है । इसी प्रकार 'सह सुपा' इस सूत्र घटक सह शब्द की भी अनावश्यकता बतलाई गई है, क्योंकि 'समुदाये वाक्यपरिसमाप्तिः' स्वीकार कर लेने पर इन पदों की आवश्यकता नहीं रह जाती है । इस प्रकार अब ये दोनों न्याय सामने प्रस्तुत हैं कि परिसमाप्ति प्रत्येक में होती है और वाक्य की परिसमाप्ति समुदाय में भी होती है । जैसा लक्ष्य होगा उसके अनुरोध पर व्यवस्था कर ली जाती है । जैसे - वृद्धि आदि संज्ञाओं के लिये ‘प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिः' और समासादि संज्ञाओं के लिये 'समुदायपरिसमाप्तिः' न्याय का आश्रयण करने से कोई दोष नहीं होता है ।। ११७ ॥