पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे
ननु 'द्रोग्धा द्रोग्धा, द्रोढा द्रोढे'त्यादौ घत्वादीनामसिद्धत्वात् पूर्वं द्वित्वे एकत्र घत्वमपरत्र ढत्वमित्यस्याप्यापत्तिरत आह –
पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे।१२६।
द्वित्वभिन्ने पूर्वत्र कर्तव्ये परमसिद्धमित्यर्थः। 'पूर्वत्रासिद्धमि' इत्यधिकारभवं शास्त्रमस्या लिङ्गम्। यत्र च सिद्धत्वासिद्धत्वयोः फले विशेषस्तत्रैवेयम्। 'कृष्णर्द्धि'रित्यादौ जश्त्वात्पूर्वमनन्तरं वा द्वित्वे रूपे विशेषाभावेन नास्याः प्रवृत्तिरित्यन्यत्र विस्तरः। 'सर्वस्य द्वे' इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टेयम्॥१२६॥
कामाख्या
ननु द्रोग्धेति। घत्वादीनामसिद्धत्वात्। द्रोहता इत्यवस्थायां 'नित्यवीप्सयो'रिति द्वित्वे। पूर्वत्रासिद्धीयमिति। अत्र पूर्वत्रासिद्धीयपदं तदधिकारभवं शास्त्रपरम्। एवं च पूर्वत्रासिद्धमित्यनेनैकवाक्यतया तदधिकारभवं यच्छास्त्रं तत्राद्वित्वे इत्युपतिष्ठते इत्यर्थः। तत्फलितमाह द्वित्वभिन्ने इति। परिभाषाया उक्तार्थत्वं ध्वनयन् तस्य पदरूपसार्थक्यमाह। पूर्वत्रासिद्धमिति। अस्याः फलमाह यत्र चेति। स्पष्टमन्यत्॥१२६॥
परिभाषार्थमञ्जरी
द्वित्त्वे कर्तव्ये इति। कृतेऽपीत्यस्योपलक्षणम्। अन्यथा वाक्क् वाक् इति भाष्योदाहरणे द्वित्वे कृते पूर्वककारस्य जश्त्वे कर्त्तव्ये परककारस्यासिद्धत्वे झश्परत्वेन जश्त्वापत्तिरिति बोध्यम्। स्पष्टश्चायमर्थो विवरणे। शर्षु जश्भावे षत्वे इति वार्तिकव्याख्याने 'षट् चतुर्भ्य' इति सूत्रे शेखरे च॥१२६॥
हिन्दी टीका
ननु 'द्रोग्धा द्रोग्धा द्रोढा द्रोढे’त्यादौ घत्वादीनामसिद्धत्वात् पूर्वं द्वित्वे एकत्र घत्वमपरत्र ढत्वमित्यस्याप्यापत्तिरत आह -
द्रुह् धातु से तृच् प्रत्यय करने पर हकार को वैकल्पिक घत्व करने के कारण 'द्रोग्धा' और 'द्रोढा' ये दो रूप बनते हैं । यहाँ 'नित्यवीप्सयो:' इस सूत्र से वीप्सा अर्थ में द्वित्व करने से 'द्रोग्धा द्रोग्धा' 'द्रोढा द्रोढा' इस प्रकार द्वित्वविशिष्ट रूपं होते हैं ।
यहाँ शंका होती कि 'वा द्रुहमुह' इस सूत्र से विधेय घत्व और 'हो ढः' सूत्र से विधेय ढत्व ये दोनों त्रैपादिक हैं । इसलिये 'नित्यवीप्सयो:' (८.१.४) के सपादसप्ताध्यायी द्वित्व की दृष्टि में घत्द और ढत्व असिद्ध हो जायेंगे, ऐसी स्थिति में 'द्रोह्ता' इस आनुपूर्वी को द्वित्व करने पर एक जगह घत्व की और एक जगह ढत्वे की आपत्ति होगी । तात्पर्य यह कि घत्वविशिष्ट और ढत्वविशिष्ट दो-दो रूप न बन कर एक-एक रूप भी बनने लगेंगे । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -
पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे ॥ १२६ ॥
'पूर्वत्रासिद्धम् इत्यधिकारे भवम् पूर्वत्रासिद्धीयम्' 'गहादित्वाच्छः' पूर्वत्रासिद्धम् सूत्र के अधिकार में होने वाले जो सूत्र, अर्थात् त्रिपादी सूत्र हैं उनमें 'अद्वित्वे' इस पद की उपस्थिति होती है । इस प्रकार इस परिभाषा का यह अर्थ होता है - द्वित्व से भिन्न पूर्वशास्त्र की कर्त्तव्यता में परशास्त्र असिद्ध होता है अवतरण में आये हुए प्रयोगों में पूर्वशास्त्र 'नित्यवीप्सयोः' के द्वारा • द्वित्व ही कर्त्तव्य है इसलिये यहाँ 'पूर्वत्रासिद्धम्' सूत्र से घत्व और ढत्व की असिद्धि नहीं होगी । तस्मात् 'द्रोग्धा और द्रोढा' रूप बना कर ही द्वित्व किया जायेगा, जिससे वाञ्छित रूप की सिद्धि हो जायेगी ।
द्वित्वभिन्ने पूर्वत्र कर्तव्ये परमसिद्धमित्यर्थः । पूर्वत्रासिद्धम् ८.२.१ इत्यधिकारभवं शास्त्रमस्या लिङ्गम् ।
यत्र च सिद्धत्वासिद्धत्वयोः फले विशेषस्तत्रैवेयम् । 'कृष्णर्द्धि'रित्यादौ जश्त्वात्पूर्वमनन्तरं वा द्वित्वे रूपे विशेषाभावेन नास्याः प्रवृत्तिरित्यन्यत्र विस्तरः । सर्वस्य द्वे ८.१.१ इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टेयम् ॥ १२६ ॥
द्वित्व से भिन्न कार्य के विधायक पूर्वशास्त्र की कर्त्तव्यता में परशास्त्र असिद्ध होता है यही परिभाषार्थ है । इसकी जगह ऐसा परिभाषार्थ नहीं किया जा सकता कि द्वित्व की कर्त्तव्यता में 'पूर्वत्रासिद्धम्' सूत्र प्रवृत्त नहीं होता अर्थात् त्रैपादिक असिद्ध नहीं होता । क्योंकि ऐसा अर्थ करने पर 'दिव् + भ्याम्' इस स्थिति में 'अनचि च' (८.४.४७) इस त्रिपादी सूत्र से वकार को जो द्वित्व प्राप्त होगा, उसकी कर्त्तव्यता में पूर्वत्रासिद्धम् सूत्र प्रवृत्त नहीं होगा । उसका परिणाम यह होगा कि 'दिव उत्' (६.१.१३९) इस सपादसप्ताध्यायी के प्रति 'अनंचि च' सूत्र असिद्ध नहीं होगा । फल- स्वरूप वकार को द्वित्व करके उत्व विधान करने पर उससे पूर्व वकार का श्रवण होने लगेगा । इसलिये परिभाषा का ऐसा अर्थ करना संगत नहीं है । द्वित्व से भिन्न कार्यविधायक पूर्वशास्त्र की कर्त्तव्यता में परशास्त्र असिद्ध होता है ऐसा सिद्धान्त- भूत अर्थ के करने पर दोनों दोष नहीं रहते, क्योंकि 'द्रोग्धा' में द्वित्वभिन्न पूर्वशास्त्र नहीं है इसलिये यहाँ दत्वादि असिद्ध नहीं होंगे । 'द्युभ्याम्' में द्वित्वभिन्न वकार विधान करने वाला 'दिव उत्' शास्त्र है अतः यहाँ त्रेपादिक द्वित्व असिद्ध हो जाता है । इस प्रकार सब तगह संगति बैठ जाती है ।
'पूर्वत्रासिद्धम्' इस अधिकार के अन्तर्गत आने वाले सूत्र अर्थात् त्रैपादिक सूत्र इस परिभाषा के लिङ्ग हैं । इसलिये उसकी प्रवृत्ति वहीं होती है जहाँ त्रिपादी सूत्र हो ।
जहाँ सिद्धत्व और असिद्धत्व के बीच फल की विशेषता हो, जैसे उदाहृत 'द्रोग्धा ' और 'द्युभ्याम्' इत्यादिस्थलों में, वहीं इस परिभाषा की प्रवृत्ति होती है । 'कृष्णार्-ध्- धि' इस स्थिति में इस परिभाषा के द्वारा 'अचो रहाभ्याम्' इस द्वित्व की दृष्टि में 'झलां जश् झशि' इस जश् को. असिद्ध न किया जाय, किन्तु परत्वात् पहले जश्त्व के द्वारा धातु के धकार को दकार कर दिया जाय और उसके बाद द्वित्व किया जाय तो दो दकारक और एक धकारकरूप बनेगा। यदि इस जगह परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं की जाय और जश्त्व से पहले धकारों को द्वित्व कर दिया जाय और इसके बाद दोनों धकारों को जरत्व कर दिया जाय तो भी वही रूप बनेगा । इस प्रकार यहाँ जश्त्व से पहले या बाद में द्वित्व करने पर रूप में कोई विशेषता नहीं होती, इसलिये यहाँ परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं होती है । यह बात अन्यत्र शेखर आदि ग्रन्थों में विस्तार से कही गई है । 'सर्वस्य द्वे' इस सूत्र के भाष्य में यह परिभाषा स्पष्ट है । वहाँ 'द्रोग्धा द्रोग्धा' इस प्रयोग की सिद्धि के लिए भाष्यकार ने कहा 'पूर्वत्रासिद्धीयमद्विर्वचने, इति वक्ष्यामि' इस प्रकार भाष्य में यह वचन रूप में पढ़ी गई है ।
इस परिभाषा में द्वित्वपद से अष्टम अध्याय के पदद्वित्व तथा वर्णद्वित्व और छठे अध्याय का द्वित्व इन सभी का ग्रहण किया जाता है क्योंकि द्वित्व विशेष का ही ग्रहण किया जाय, इसका कोई विनिगमक नहीं हैं । इसी लिये 'वाक्क्, वाक्' ये वर्ण द्वित्व के भाष्योदाहरण संगत होते हैं । यहाँ 'अनचि च' की दृष्टि में चर् असिद्ध नहीं होता, अतः ककार को द्वित्व होता है ।
यह परिभाषा अनित्य है । 'उभौ साभ्यासस्य' यह सूत्र इसकी अनित्यता में प्रमाण है । 'प्राणिणत्' इस प्रयोग में अभ्यास के नकार और उसके उत्तरखण्ड के नकार इन नकारों को णकार करने के लिये यह सूत्र है । यदि यह परिभाषा नित्य होती, तो 'प्र-अन्-इ- अत्' इस स्थिति में ' चङि' (६.१.११) सूत्र से धातु को द्वित्व, तथा 'अनिते:' (८.४.१९) सूत्र से धातु के नकार को णकार प्राप्त रहने पर इस परिभाषा से 'अनितेः ' सूत्र असिद्ध नहीं होता, क्योंकि द्वित्वभिन्न पूर्वत्र की कर्त्तव्यता में पर असिद्ध होता है । यहाँ पूर्वशास्त्र से द्वित्व ही करना है इसलिये णत्व असिद्ध नहीं होता । ऐसी स्थिति में पहले णत्व करके पीछे द्वित्व किया जाता, जिससे प्राणिणत् प्रयोग की सिद्धि हो सकती थी, तो 'उभौ साभ्यासस्य' सूत्र की क्या आवश्यकता रह जाती है । इस प्रकार यह सूत्र व्यर्थ होकर इस परिभाषा की अनित्यता का ज्ञापन करता है । परिभाषा के अनित्य होने पर द्वित्व की दृष्टि से 'अनितेः' सूत्र के असिद्ध हो जाने के कारण प्राणिणत् में दोनों नकारों को णत्वविधान करने के लिये 'उभौ साभ्यासस्य' सूत्र की स्वांश में चरितार्थता होती है । इसलिये 'प्रणिनाय ' प्रयोग की सिद्धि होती है । यहाँ द्वित्व की कर्त्तव्यता में ' उपसर्गादसमासेऽपि सूत्र असिद्ध हो जाता है, जिससे पहले द्वित्व करके पीछे णत्व किया जाता है । इस प्रकार 'प्रणिनाय ' यह प्रयोग सिद्ध होता है ।। १२६ ।।