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कामाख्यापरिभाषार्थमञ्जरीसहितः श्रीमन्नागोजिभट्टविरचितः परिभाषेन्दुशेखरः

अभेदका गुणाः

ननु 'यूस्त्र्याख्यौ' इत्यत्र व्यक्तिपक्षे दीर्घनिर्देशादनण्त्वेन ग्राहकसूत्राप्राप्त्योदात्ताद्यन्यतमोच्चारणेऽन्यस्वरकस्य संज्ञा न स्यादत आह –

अभेदका गुणाः।११८।

असति यत्ने स्वरूपेणोच्चारितो गुणो न भेदको न विवक्षित इत्यर्थः। अत्र च 'अस्थिदधी'त्यादावनङादेरुदात्तस्यैवोच्चारणेन सिद्धे उदात्तग्रहणं ज्ञापकम्। 'स्वरूपेणोच्चारित' इत्युक्तेरनुदात्तादेरन्तोदात्तादित्युदात्तादिशब्दोच्चारणे विवक्षैव। 'उञः', 'ऊँ' इत्यत्र अननुनासिके एवोच्चारणीये यत्नाधिक्येनानुनासिकोच्चारणाद्विवक्षा बोध्या। 'पथिमथ्यृभुक्षामि'त्यादौ स्थान्यनुरूपतयानुनासिक एवोच्चारणीये निरनुनासिकोच्चारणात्तद्विवक्षा। एतदर्थमेव 'असति यत्न' इत्युक्तम्। न चैवमस्थ्यादीनां 'नब्विषयस्य' इत्याद्युदात्ततया अन्त्यादेशस्यानङः स्थान्यनुरूपेऽनुदात्त एवोच्चारणीये उदात्तोच्चारणं विवक्षार्थं भविष्यतीति कथमस्य ज्ञापकत्वमिति वाच्यम्। परमास्थिशब्दादावन्तोदात्त उदात्तगुणकस्यापि स्थानित्वेन विवक्षायां मानाभावात्। 'चतसर्याद्युदात्तनिपातनं करिष्यते, वधादेश आद्युदात्तनिपातनं करिष्यते, पदादयोऽन्तोदात्ता निपात्यन्ते, सहस्य स उदात्तो निपात्यत' इत्यादिभाष्यं त्वेकश्रुत्याष्टाध्यायीपाठे क्वचिदुदात्ताद्युच्चारणं विवक्षार्थमित्याशयेन। त्रैस्वर्येण पाठ इति पक्षे तु ज्ञापकपरं भाष्यमिति कैयटादयः। परे तु - निपातनं नामान्यादृशे प्रयोगे प्राप्तेऽन्यादृशप्रयोगकरणम्, तत्तद्रूपाद् यत्नात्तत्र तत्रोदात्तादिविवक्षा। 'तिसृचतसृ' इत्यत्र द्वन्द्वप्रयुक्तेऽन्तोदात्ते उच्चारणीये आद्युदात्तोच्चारणमन्यत्र स्थान्यनुरूपे स्वर उच्चारणीये तत्तदुच्चारणं विवक्षार्थम्। सम्पूर्णाष्टाध्याय्याचार्येणैकश्रुत्या पठितेत्यत्र न मानम्। क्वचित्पदस्यैकश्रुत्यापि पाठो यथा 'दाण्डिनायन' इत्यादि सूत्रे 'ऐक्ष्वाके'ति। यद्यप्यध्येतार एकश्रुत्यैवाङ्गानि पठन्ति ब्राह्मणवत्तथापि व्याख्यानतोऽनुनासिकत्वादिवदुदात्त-निपातनादिज्ञानमित्याहुः। विधेयाण्विषये त्वप्रत्यय इति निषेधान्न गुणाभेदकत्वेन सवर्णग्रहणम्। अत एव घटवदित्यादौ मतोर्मस्य नानुनासिको वकारः। अत एव 'तद्वानासाम्' इति सूत्रनिर्देशः। अन्यथा 'प्रत्यये भाषायाम्' इति नित्यमनुनासिकः स्यात्। जातिपक्षे तु नास्योपयोग इति बोध्यम्। 'यू' इत्यादौ दीर्घमात्रवृत्तिजातिनिर्देशान्न क्षतिरित्यन्यत्र विस्तरः॥११८॥

 

कामाख्या

अभेदका इति।  स्वेतरगुणविशिष्टव्यावर्तका नेत्यर्थः। असति यत्न इति। स्वोच्चारणातिरिक्तोदात्तादिशब्दोच्चारणादिव्यापारमन्तरेणैव गुणस्य बोधने इत्यर्थस्तत्फलितमाह स्वरूपेणोच्चारित इति। यत्नविशेषे विवक्षां  दर्शयति उञ ऊँ इति। ननु स्थान्यननुरूपोच्चारणस्थले विवक्षास्वीकारे 'अस्थिदधी'ति सूत्रघटकोदात्तशब्दस्य ज्ञापकत्वं न संभवतीत्याशङ्कते चैवमिति। तद्विषयस्य नपुंसकस्यादिरूदात्त इत्यर्थः। अनेनाद्याकारस्योदात्तत्वे 'अनुदात्तं पदमेकवर्ज'मित्यन्तानुदात्तत्वमस्थ्यादीनामिति भावः। परमस्थीति। समासस्यान्तोदात्त इत्यन्तोदात्तः। ननु निपातनस्थले यत्नविशेषाभावाच्च तसर्यादिभाष्यासंगतिरत आह चतुसर्यादीति। एकश्रुतिः स्वरसामान्याभावः स्वरान्तरं वा। ततश्च ततोऽन्यथाकरणं विवक्षार्थमिति भावः। नन्वेवम् 'अस्थी'ति सूत्रेऽपि एकश्रुत्या पाठे कर्तव्ये उदात्तगुणकस्यातङ उच्चारणेनैवाविवक्षायाः सम्मभवादुदात्तशब्दोच्चारणं व्यर्थमेवेत्यत आह त्रैस्वर्येणेति। कैयटाद्युक्तावरूचिं प्रकटयन्नाह परे त्वित्यादिना।  सामान्येनोक्तमर्थम्विशिष्य दर्शयति। तिसृ इत्यादिअन्यत्र। वधादौ। अस्य स्थानी हन्धातुः स यथाऽनुदात्ताद्युच्चारणम्। मानमिति। सिद्धे वस्तुनि विकल्पायोगात्। पाठे पक्षद्वयासम्भवाच्चेत्यपि बोध्यम्। कश्चन त्रैस्वर्येणाष्टाध्यायीपठितेति वदति। तन्मतमभ्युपेत्य निपातनपरं भाष्यमिति वा व्यवस्था बोध्याः।  भाष्यविरोधपरिहारायाह क्वचिदितिएक्ष्वाकेति। जनपदशब्दात्क्षत्रियादित्यञन्तस्याद्युदात्तस्य कोपधादित्यणन्तस्यान्तोदात्तस्य चैक्ष्वाकशब्दस्य स्वरभेदादेकोक्त्या तयोरुकारलोपार्थं निपातनासंभावादुभयसंग्रहार्थमेकश्रुत्या निपातनमाश्रितं भाष्यकारैः उपायान्तरत्वेन, प्रकृतपरिभाषयाऽप्युभयोर्ग्रहणसिद्धेः। यद्यपि पाणिनेस्तत्र तत्र तत्स्वरस्य पाठस्तथापि अध्येतॄणामेकश्रुत्यैव पाठदर्शनेनोदात्तादिज्ञानाभावात्कथं स्वरनियामकत्वमिति केचित्। जातिपक्षे त्विति। तत्पक्षे स्वप्रतिपाद्यतावच्छेदकजात्यवच्छिन्नमात्रस्य ग्रहणसिद्धेः। दीर्घमात्रवृत्तीति।  यू इति दीर्घग्रहणाद्दीर्घत्वसमानाधिकरणेत्वावच्छिन्नस्य ग्रहणन्न तु ह्रस्वस्येति भावः। अन्यत् स्पष्टम्॥११८॥

नास्ति।

ननु यूस्त्र्याख्यौ १.४.३ इत्यत्र व्यक्तिपक्षे दीर्घनिर्देशादनण्त्वेन ग्राहकसूत्राप्राप्त्योदात्ताद्यन्यतमोच्चारणेऽन्यस्वरकस्य संज्ञा न स्यादत आह -

'यूस्त्र्याख्यो नदी' यह सूत्र नित्य स्त्रीलिङ्ग दीर्घ ईकारान्त और ऊकारान्त की नदी संज्ञा करता है । यहाँ यह शंका होती है कि वर्णों के सम्बन्ध में जब जाति पक्ष होता है तब एक वर्ण के उच्चारण करने पर तज्जात्यवच्छिन्न सारे वर्णों का बोध उस वर्ण से हो जाता है, किन्तु जातिपक्ष न मान कर जब व्यक्तिपक्ष माना जायेगा तो उस व्यक्तिपक्ष में तो उसी व्यक्ति का बोध होगा, जिसका उच्चारण किया गया होगा । ऐसी स्थिति में 'यूस्त्रयाख्यो नदी' इस सूत्र में व्यक्ति पक्ष में पाणिनि द्वारा उदात्तत्वादि के मध्य यद्गुणक ईकार, ऊकार का उच्चारण माना जायेगा, उससे भिन्न स्वर वाले ईकार-ऊकार का ग्रहण नहीं हो सकेगा । यदि कहा जाय कि अणुदित्सूत्र से दीर्घं ईकार ऊकार के सवर्णी का ग्रहण हो जायेगा, कहना ठीक नहीं है क्योंकि अणुदित् सूत्र की प्रवृत्ति वहीं होती है, जहाँ णकार अनुबन्ध का प्रयोग करके अण् प्रत्याहार का परिज्ञान कराया गया हो । 'यूस्त्र्याख्यो' सूत्र में ऐसी स्थिति नहीं है । फलस्वरूप यहाँ के ईकार ऊकार अण नहीं हैं, इसलिये अनण् ईकार ऊकार में ग्राहक सूत्र (अणुदित्सूत्र) की प्रवृत्ति नहीं होगी । इस प्रकार यहाँ उदात्तादि के मध्य अन्यतम का उच्चारण करने पर उससे भिन्न का ग्रहण नहीं होगा । इस शंका के होने पर यह परिभाषा बनाई गई -

अभेदका गुणाः ॥ ११८ ॥

गुण = उदात्तत्वानुदात्तत्वादि गुण, भेदक अर्थात् स्वेतरगुणविशिष्ट क व्यावर्तक नहीं होते हैं ।

यदि किसी विशेष गुण के ग्रहण के लिये उदात्तादि शब्दों का उच्चारण रूपी यत्न किया गया हो तो वह गुण विवक्षित होता है । इसलिये इस परिभाषा का अर्थ ऐसा होता है कि - यत्न न करने पर स्वरूपतः उच्चारित गुण विवक्षित नहीं होता है ।इस परिभाषा को स्वीकार करने का फल यह हुआ कि 'यूस्त्र्याख्यो' सूत्र में उदात्तत्वादि में से किसी के ग्रहण के लिये कोई यत्न नहीं किया गया है, इसलिये पाणिनि ने यहाँ ईकार और ऊकार को चाहे किसी भी गुण से विशिष्ट करके उच्चारण किया हो, वह गुण यहाँ व्यावर्तक नहीं होगा; अर्थात् यहाँ सभी प्रकार के दीर्घ ईकार और ऊकार का ग्रहण हो जायेगा ।

असति यत्ने स्वरूपेणोच्चारितो गुणो न भेदको न विवक्षित इत्यर्थः । अत्र च अस्थिदधि ७.१.७५ इत्यादावनङादेरुदात्तस्यवोच्चारणेन सिद्धे उदात्तग्रहणं ज्ञापकम् ॥ 'स्वरूपेणोच्चारित' इत्युक्तेरनुदात्तादेरन्तोदात्तादित्युदात्तादिशब्दोच्चारणे विवक्षैव । उञः १.१.१७ ऊँ १.१.१८ इत्यत्र अननुनासिके एवोच्चारणीये यत्नाधिक्येनानुनासिकोच्चारणाद्विवक्षा बोध्या । पथिमथ्यृभुक्षाम् ७.१.८५ इत्यादौ स्थान्यनुरूपतयानुनासिक एवोच्चारणीये निरनुनासिकोच्चारणात्तद्विवक्षा । एतदर्थमेव 'असति यत्न' इत्युक्तम् ।न चैवमस्थ्यादीनां 'न विषयस्य' इत्याद्युदात्ततया अन्त्यादेशस्यानङः स्थान्यनुरूपेऽनुदात्त एवोच्चारणीये उदात्तोच्चारणं विवक्षार्थं भविष्यतीति कथमस्य ज्ञापकत्वमिति वाच्यम् । परमास्थिशब्दादावन्तोदात्त उदात्तगुणकस्यापि स्थानित्वेन विवक्षायां मानाभावात् ।

विना यत्न के स्वरूपतः उच्चारित गुण भेदक अर्थात् विवक्षित नहीं होता है । इस परिभाषा में प्रमाण 'अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनडुदात्त:' इस सूत्र में किया गया उदात्तग्रहण है । यदि विना यत्न के स्वरूपतः उच्चारित उदात्तादि गुण विवक्षित होता तो 'अनङ्' का ही उदात्तत्वगुणविशिष्ट उच्चारण कर दिये होते । उसी से उदात्तस्वरविशिष्ट अनङ् का ग्रहण हो जाता तो फिर ऐसी स्थिति में उक्त सूत्र में 'उदात्त' ग्रहण की क्या आवश्यकता है ? यही उदात्तग्रहण व्यर्थ होकर इस परिभाषा का ज्ञापन करता है । जब परिभाषा ज्ञापित हो गई तो अब उदात्तगुणविशिष्ट अनङ् का उच्चारण करने पर वह उदात्तत्व विवक्षित नहीं होगा, इसलिये सूत्र मे उदात्तग्रहण की स्वांश में चरितार्थता होती है । यही उदात्तग्रहण 'स्वरूपेण उच्चारित:' इस विशेषणांश का भी ज्ञापन करता । अन्यथा यदि अविशेषेण गुणों को अविवक्षित मान लिया जाय तो परिभाषा के ज्ञापन के बाद भी उदात्त ग्रहण की स्वांश में चरितार्थता नहीं होती क्योंकि उसके रहने पर भी वहाँ उदात्तत्व विवक्षित नहीं होता । स्वरूपेण उच्चारितः का अर्थ है कि उदात्तादि शब्दों का तो उच्चारण न किया जाय, किन्तु जिसे उदात्त या अनुदात्त करना है, उसे वैसे ही (उच्चैरुदात्तः) इत्यादि क्रम से सूत्र में पढ़ दिया जाय । ऐसा पढ़ा हुआ उदात्तत्वादिगुण विवक्षित नहीं होता, यही इस परिभाषा का तात्पर्य है ।

अब स्वरूपेणोच्चारित: इस विशेषण का फल देते हुए लिख रहे हैं कि 'अनुदात्तादेरञ्’ ‘अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्याम्' इन सूत्रों में 'उदात्त और अनुदात्त ' शब्दों का उच्चारणरूपी यत्न करने के कारण यहाँ उदात्तत्व और अनुदात्तत्व गुणों की विवक्षा ही है । इसी बात में 'उन' 'ऊँ' का दृष्टान्त देते हुए कह रहे हैं कि 'उन्' को 'ऊँ' यह आदेश, सूत्र में ऐसा उच्चारण करके ही किया जाता है । उञ यह स्थानी निरनुनासिक हैं, अतः उसके स्थान पर होने वाले आदेश का उच्चारण भी अननुनासिक ही करना चाहिये था, किन्तु वैसा न करके 'ऊँ' ऐसा अनुनासिकोच्चारणरूपी यत्न किया गया है । इस यत्नाधिक्य के कारण यहाँ अनुनासिकत्व की विवक्षा होती है ।

'पथिमथ्यभुक्षामात्' इस सूत्र से सूत्रस्थ शब्दों के नकार को आकार किया जाता है । यहाँ भी नकार रूपी स्थानी के अनुनासिक होने के कारण तदनुरूप अनुनासिकाकार का ही उच्चारण करना चाहिये था, किन्तु वैसा न करके आकार का निरनुनासिकोच्चारण किया गया है । आकार के इस निरनुनासिकोच्चारण रूपी यत्नाधिक्य के कारण यहाँ निरनुनासिकत्व की विवक्षा होती है और निरनुनासिक आदेश होता है । इसीलिये मूल में 'असति यत्ने' ऐसा कहा गया है । इसका आत्पर्य है कि यत्न न करने पर गुण विवक्षित नहीं होते । किन्तु यदि यत्न किया जाता है तो विवक्षा होगी ही ।

अब यहाँ यह शंका होती है कि 'नब्विषयस्यानिसन्तस्य' इसे सूत्र से इसन्तवर्जितनब्बिषय अर्थात् नित्यनपुंसकलिंग शब्द आद्युदात्त होता है । इस सूत्र से अस्थि आदि शब्द जब आद्युदात्त कर दिये जायेंगे तो 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' सूत्र से अस्थ्यादि शब्दों का अन्त्य इकार अनुदात्त हो जायेगा । उस अनुदात्त इकार के स्थान पर होने वाले आदेश अनङ् का उच्चारण स्थानी के अनुरूप अनुदात्त ही करना चाहिये किन्तु उसका अनुदात्तोच्चारण न करके यदि स्वरूपतः उदात्तस्वरयुक्त उच्चारण कर दिया जाय तो यह उदात्तोच्चारण भी यत्नाधिक्य ही कहा जायेगा क्योंकि अनुदात्त उच्चारण को रोक कर उदात्तोच्चारण किया जा रहा है । इस प्रकार यत्नाधिक्य के कारण अनङ् का उदात्तोच्चारण विवक्षित हो जायेगा, इस लिए सूत्र में 'उदात्त ग्रहण की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् उदात्तग्रहण परिभाषा के ज्ञापन के बाद भी स्वांश में चरितार्थं नहीं हो रहा है । इस शंका का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि जहाँ अस्थि शब्द का परमशब्द के साथ कर्मधारय समास कर देंगे, वहाँ 'परमास्थि' शब्द 'समासस्य' सूत्र से अन्तोदात्त हो जायेगा । इस प्रकार अनङ् का स्थानी इकार उदत्तगुणक भी सम्भव है । ऐसी स्थिति में यदि अनङ् का उदात्तोच्चारण किया जाता है तो वह विवक्षित नहीं हो सकता । इसलिये उदात्त की विवक्षा के लिये उदात्तग्रहण स्वांश में चरितार्थ होता है । अर्थात् सूत्र में 'उदात्त' यह शब्द लिखना सार्थक होता है ।

'चतसर्याद्युदात्तनिपातं करिष्यते, वधादेश आद्युदात्तनिपातनं करिष्यते, पदादयोऽन्तोदात्ता निपात्यन्ते, सहस्य स उदात्तो निपात्यत' इत्यादिभाष्यं त्वेकश्रुत्याष्टाध्यायीपाठे क्वचिदुदात्ताद्युच्चारणं विवक्षार्थमित्याशयेन । त्रैस्वर्येण पाठ इति पक्षे तु ज्ञापकपरं भाष्यमिति कैयटादयः । परे तु - निपातनं नामान्यादृशे प्रयोगे प्राप्तेऽन्यादृशप्रयोगकरणम्, तत्तद्रूपाद् यत्नात्तत्र तत्रोदात्तादिविवक्षा । 'तिसृचतसृ' इत्यत्र द्वन्द्वप्रयुक्तेऽन्तोदात्ते उच्चारणीये आद्युदात्तोच्चारणमन्यत्र स्थान्यनुरूपे स्वर उच्चारणीये तत्तदुच्चारणं विवक्षार्थम् । सम्पूर्णाष्टाध्याय्याचार्येणैकश्रुत्या पठितेत्यत्र न मानम् । क्वचित्पदस्यैकश्रुत्यापि पाठो यथा दाण्डिनायन ६.४.१७४ इत्यादि सूत्र 'ऐक्ष्वाके'ति । यद्यप्यध्येतार एकश्रुत्यैवाङ्गानि पठन्ति ब्राह्मणवत्तथापि व्याख्यानतोऽनुनासिकत्वादिवदुदात्तनिपातनादिज्ञानमित्याहुः । विधेयाण्विषये त्वप्रत्यय इति निषेधान्न गुणाभेदकत्वेन सवर्णग्रहणम् । अत एव घटवदित्यादौ मतोर्मस्य नानुनासिको वकारः । अत एव तद्वानासाम् ४.४.१२५ इति सूत्रनिर्देशः । अन्यथा 'प्रत्यये भाषायाम्' इति नित्यमनुनासिकः स्यात् । जातिपक्षे तु नास्योपयोग इति बोध्यम् । 'यू' इत्यादौ दीर्घमात्रवृत्तिजातिनिर्देशान्न क्षतिरित्यन्यत्र विस्तरः  ॥ ११८ ॥

'चतस्रः पश्य' इस प्रयोग में 'चतुरः शसि' इस सूत्र से चतसृ आदेश की अन्तोदात्तता की प्राप्ति होती है, इसके निवारण के लिये भाष्यकार ने कहा कि 'चतसर्याद्युदात्तनिपातनं करिष्यते' चतसृ आदेश में आद्युदात्त निपातन किया जाता है । इसी प्रकार 'वधिषीष्ट' इस प्रयोग में इट् का प्रतिषेध न होने लगे इसलिये वध आदेश को भी आद्युदात्त निपातन किया गया है इसी प्रकार ‘पादस्य पदज्याति' इस सूत्र से विहित पद आदेश को अन्तोदात्त निपातन किया गया है । ऐसे ही सह के स्थान पर किये गये स आदेश को उदात्त निपातन किया गया है ।

ये सारे निपातन इस बात को अभिव्यक्त करते हैं कि अष्टाध्यायी में यदि एकश्रुति से पाठ है तो कहीं पर किया गया उदात्तादि शब्दों का उच्चारण विवक्षार्थ है । इसका तात्पर्य यह है कि अष्टाध्यायी में दो प्रकार के पाठ हैं - पहला एकश्रुत से और दूसरा स्वर्येण । एक श्रुति का अर्थ है उदात्तादि स्वरों की अविभागेन स्थिति, अर्थात् किसी भी स्वर से विशिष्ट (युक्त) पाठन करके स्वर- सामान्यभाव से पाठ करना एक श्रुति से पाठ कहा जाता है । त्रैस्वर्येण पाठ वह कहलाता है, जिसमें उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का स्व-स्व स्थान पर उच्चारण कर दिया गया हो । कैयट उपर्युक्त निपातन को दोनों पक्षों में लगाते हैं उनका कहना है कि यदि अष्टाध्यायी एकश्रुत्या पढ़ी गई है अर्थात् उदात्तादि स्वरों का स्वरूपतः उच्चारण नहीं किया गया है तो इस पक्ष में यदि कहीं उदात्तादि शब्दों उच्चारण कर दिया जाता है तो वह विवक्षार्थ हो जाता है । कारण यह है कि जब स्वरसामान्यभाव से अष्टाध्यायी पढ़ी गई है तो ऐसी स्थिति में उदात्तादि शब्दों का उच्चारण करना यत्नाधिक्य ही कहा जायेगा । इसलिये वहाँ उदात्तादि की विवक्षा हो जाती है । इसी प्रकार उपर्युक्त निपातन भी विवक्षार्थ ही है, क्योंकि एक-श्रुति पाठ में यह भी यत्नाधिक्य ही है ।

अष्टाध्यायी त्रैस्वर्येण पढ़ी गई है, यदि यह पक्ष मानते हैं तो उदात्तादिस्वरविशिष्ट का पाठ स्वाभाविक होने के कारण उदात्तत्व आदि स्वरविशिष्ट का ग्रहण सिद्ध ही था तो ऐसी स्थिति में यदि कहीं उदात्तादि शब्दों का उच्चारण कर दिया जाता है तो वह उच्चारणज्ञापकपरक होता है । ज्ञापकपरक होने का तात्पर्य यह कि बिना यत्न किये उदात्तादि स्वरों का स्वरूपतः पाठ (उच्चारण) विवक्षित नहीं होता, अतः विवक्षा के लिए उदात्तादि शब्दों का उच्चारण वहीं सार्थक होता है, क्योंकि उदात्त आदि शब्दों का उच्चारण या ग्रहण करना ही वहाँ यत्नाधिक्य हो जाता है । इसी प्रकार निपातनरूपी यत्न के द्वारा उपर्युक्त स्थलों में उदात्तादि की विवक्षा की गई है । इस प्रकार कैयट दोनों पक्षों में निपातन को संगत करते हैं । ' अस्थिदधि' सूत्र के उदात्तग्रहण के द्वारा किये गये ज्ञापन की सुसंगति के लिये यह मानना आवश्यक है कि अष्टाध्यायी का पाठ स्वर्येण किया गया है । अन्यथा एकश्रुत्या पाठ को यदि औत्सर्गिक माना जाय तो कहीं पर किया हुआ उदात्त आदि शब्दों का उच्चारण वहीं यत्नाधिक्य के कारण विवक्षार्थ ही होगा । ऐसी स्थिति में 'अस्थिदधि' का उदात्तग्रहण जब विवक्षार्थ हो जायेगा तब एकश्रुति पाठ वाले पक्ष में उसकी ज्ञापकता किस प्रकार हो सकेगी ? इसलिये 'त्रैस्वर्येण' पाठ को स्वीकार करना चाहिये । इस पक्ष में तीनों स्वरों से युक्त पाठ करना जब स्वाभाविक हो जाता है तब उदात्तग्रहण व्यर्थ होकर ज्ञापक होता है । किन्तु स्वर्येण पाठ स्वीकार करने पर यह दोष आता है कि इस पक्ष में ' चतसर्याद्युदात्तनिपातनं करिष्यते' इत्यादि भाष्यों की असंगति हो रही है क्योंकि इस पक्ष में तीनों स्वरों से युक्त पाठ जब स्वाभाविक हो जाता है तब उक्त निपातनों को यत्नाधिक्य नहीं माना जा सकता और जब यत्नाधिक्य नहीं हुआ, तब उन उदात्तादिकों की वहाँ विवक्षा भी नहीं हो सकती । इस प्रश्न के उत्तर में कह रहे हैं कि ये सारे निपातन अष्टाध्यायी के एकश्रुत्या पाठ में संगत होते हैं क्योंकि स्वरसामान्याभाव से जब पाठ है तब ये सारे निपातन यत्नाधिक्य हो जाते हैं, इसलिये वहाँ उदात्तादि की विवक्षा हो जाती है । 

इस प्रसंग में नागेशभट्ट 'परे तु' शब्द से अपना मत व्यक्त करते हुए कह रहे हैं कि 'सूत्र के द्वारा अन्य रूप में प्राप्त प्रयोग को अन्य रूप प्रदान करना निपातन कहा जाता है । अर्थात् जो कार्य सूत्र से सिद्ध न हो वह कार्य नियातन के द्वारा किया जाता है । इस प्रकार निपातन भी एक प्रकार का यत्न विशेष ही हो जाता है । ऐसी स्थिति में भाष्यकार ने तत्तत्स्थलों में जो 'आद्युदात्तनिपातनं करिष्यते' आदि उल्लेख किया है उस उल्लेखरूपी यत्नाधिक्य से तत्तत्स्थलों में उदात्तादि की विवक्षा होती है ।

'त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृचतसृ' इस सूत्र में 'तिसृचतसृ' इस पद में द्वन्द्व समास होने के कारण ‘समासस्य' सूत्र के अनुसार अन्तोदात्त उच्चारण करना चाहिये, किन्तु वैसा न करके इसका आद्युदात्त उच्चारण यह सिद्ध करता है कि अन्यत्र स्थानी के अनुरूप स्वर का उच्चारण न करके उससे भिन्न तत्तद्विशेष स्वर का उच्चारण विवक्षार्थं होता है । जैसे वधादेश का स्थानी हन् धातु अनुदात्त है अतः उसके स्थान पर होने वाले वध आदेश को भी अनुदात्त ही होना चाहिये, किन्तु वैसा न करके वध आदेश का जो उदात्तोच्चारण किया गया है, वह विवक्षित हो जाता है । इसका फल होता है कि हन् धातु से कर्मवाच्य में आशिष् लिङ् में 'वधिषीष्ट' इस प्रयोग में 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् ' इस सूत्र से इट् का निषेध नहीं होता है ।

सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पाणिनि के द्वारा एकश्रुति से पढ़ी गई है, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । कहीं पर किसी पद का एक श्रुति से भी पाठ किया गया है । जैसे 'दाण्डिनायन' इत्यादि पाणिनिसूत्र में ऐक्ष्वाक शब्द एकश्रुति से पढ़ा गया है । इसका कारण यह है कि 'इक्ष्वाकु' शब्द से जब 'जनपदशब्दात्. क्षत्रियादव्' इस सूत्र से अन् प्रत्यय करते हैं तब आदिवृद्धि के निष्पन्न ' ऐक्ष्वाकु + अ ' यह अनन्त शब्द शब्द नित् होने के कारण आद्युदात्त होता है । जब इक्ष्वाकु शब्द से 'कोपधाच्च' सूत्र चातुरर्थिक अण् प्रत्यय करते हैं तब ' ऐक्ष्वाकु + अ' यह अणन्त शब्द अन्तोदात्त होता है । इस तरह दो प्रकार के ' ऐक्ष्वाकु' शब्दों को एक उक्ति के द्वारा ग्रहण करने के लिये इस सूत्र में एकश्रुति से ' ऐक्ष्वाक' ऐसा पाठ करके निपातन से उकार का लोप किया जाता है । जब यहाँ एकश्रुति से पाठ कर दिया गया है अर्थात् किसी भी स्वर का उल्लेख नहीं किया गया है तब अविशेषात् दोनों प्रकार की 'ऐक्ष्वाकु + अ' यह आनुपूर्वी यहाँ गृहीत हो जाती है, दोनों प्रकार के ऐक्ष्वाक शब्दों का एकशेष के द्वारा एकश्रुति से पाठ करने का प्रयोजन यहाँ स्पष्ट है ।

यद्यपि अध्येता ब्राह्मण ग्रन्थों की भांति अङ्गों को भी एकश्रुति से ही पढ़ते हैं आधार पर तथापि उदात्तादिस्वरों का और निपातन का ज्ञान व्याख्यान विशेष के हो जाता है, जैसे 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' इस सूत्र से अनुनासिक अच् की इत् संज्ञा का विधान किया गया है किन्तु 'एध वृद्धी' का अकार 'टुनदि समृद्धी' का इकार तथा अन्य अनेक अच् जिनकी इत्संज्ञा वाञ्छित है, उन्हें अनुनासिक चिह्न लगा कर न पढ़े जाने पर भी व्याख्यान-विशेष के आधार पर उन्हें अनुनासिक मान लिया जाता है, उसी प्रकार उदात्तत्व आदि का ज्ञान भी व्याख्यान विशेष के आधार पर कर लेना चाहिये ।

'यूस्त्र्याख्यो नदी' सूत्र में सभी प्रकार के (उदात्तत्वादि विशिष्ट) ईकार और ऊकार के ग्रहण के लिये यह परिभाषा आवश्यक है क्योंकि 'अणुदित्' सूत्र से वहाँ सवर्णग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि 'यू' यह पद अण् नहीं है । ऐसी स्थिति में जब कि यह परिभाषा स्वीकार कर ली गई, तब विधेय (विधीयमान) अण् में भी इस परिभाषा की प्रवृत्ति होनी चाहिये, इस प्रकार की शंका होने पर कह रहे हैं कि जहाँ अण् विधीयमान होता है वहीं इस परिभाषा से सवर्णग्रहण नहीं होता । अर्थात् वहाँ यह परिभाषा नहीं लगती है । इसका कारण यह है कि 'अणुदित् सूत्र' में जो अप्रत्यय ग्रहण किया है उससे (एकदेशानुमत्या) ज्ञापित जो 'भाव्यमानेन सवर्णानां ग्रहणं न' यह परिभाषा है उससे विधीयमानस्थल में सवर्णग्रहण का निषेध हो जाता है । इसीलिये 'घट' शब्द से मतुप् प्रत्यय करने पर 'मादुपधायाश्च' इत्यादि सूत्र से विधीयमान मतुप् के मकार के स्थान पर 'वकार' स्थानी के अनुरूप अनुनासिक नहीं हुआ । अत एव = विधीयमानस्थल में 'गुणा अभेदका:' इस परिभाषा की प्रवृत्ति न होने के कारण ही 'तद्वानासामुपधानो मन्त्र: ' (४.४.१२५) इस में 'तद्वान्' यह पाणिनि का निर्देश संगत होता है । यहाँ भी मतुप् के मकार को अनुनासिक वकार नहीं हुआ है । अन्यथा यदि यहाँ अनुनासिक वकार हो जाता तो उस अनुनासिक वकार प्रत्यय के पर में रहने पर 'प्रत्यये भाषायां नित्यम्' से तद् के दकार को नित्य अनुनासिक होने लगता ।

जैसा कि इस परिभाषा के अवतरण में कहा गया है कि यह परिभाषा व्यक्तिपक्ष के लिये ही आवश्यक है, इससे सिद्ध होता है कि जातिपक्ष में इस परिभाषा का कोई उपयोग नहीं है क्योंकि इस पक्ष में तज्जात्यवच्छिन्न सकल व्यक्ति का बोध स्वतः सिद्ध है । यदि कहीं जाय कि जाति पक्ष में जब जाति के सकल घटकों का बोध हो जाता है तब 'यूस्त्राख्यो नदी' सूत्र में भी ईत्व जात्यवच्छिन्न ह्रस्व इकार का भी ग्रहण होना चाहिये तो इस शंका के उत्तर में कह रहे हैं कि 'यूस्त्र्याख्यो' सूत्र में दीर्घमात्रवृत्ति जाति का निर्देश हुआ है । इसलिये दीर्घत्व जात्यवच्छिन्न दीर्घ ई और ऊकार का ग्रहण होने पर भी ह्रस्वत्व जात्यवच्छिन्न इकारादि का ग्रहण नहीं हो सकता । इस प्रकार कोई दोष नहीं रह जाता । यह बात अन्यत्र भाष्यप्रदीपोद्योत में विस्तार से कही गई है ।। ११८ ॥