प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिः
ननु वृद्ध्यादिसंज्ञाः समुदाये स्युरत आह -
प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिः।११६।
देवदत्तादयो भोज्यन्तामित्यत्र भुजिवत्॥११६॥
कामाख्या
प्रत्येकं वाक्येति। वाक्यशब्देन वाक्यजन्यशाब्दबोधीयोद्देश्यविषयता गृह्यते। तस्याः समाप्तिः, पर्याप्तिलक्षणः सम्बन्धः, प्रत्येकं = प्रत्येकवृत्तिर्भवतीत्यर्थः। तेन 'वृद्धिरादैजि'ति संग्राहकवाक्यात् आदैचो वृद्धिशब्दाभिन्ना इति शाब्दबोधे जातेऽपि समुदायस्य संज्ञायां फलाभावात्। प्रत्येकवृत्तिधर्मस्य वाच्यतावच्छेदकत्वकल्पनेन लक्ष्यसिद्धिः कार्येति सिद्धम्। तत्र दृष्टान्तमाह देवदत्तादय इति॥११६॥
नास्ति।
हिन्दी टीका
ननु वृद्धयादिसंज्ञाः समुदाये स्युरत आह -
पूर्व परिभाषा में घु संज्ञा का प्रसंग आने से वृद्धि आदि संज्ञाओं का स्मरण करके उनके विषय में सन्देह कर रहे हैं कि 'वृद्धिरादैच्' 'अदेङ् गुणः ' ' दाधाध्वदाप्' इत्यादि सूत्रों से विहित, वृद्धि, गुण और घु संज्ञाएँ समुदाय को ही होनी चाहिये, क्योंकि 'आदैच्' इस समुदाय को उद्देश्य कर वृद्धि विधान करने से यह बात स्पष्ट होती है कि आदैच् में समुदायत्व, और वृद्धित्व ये दो वस्तुएँ हैं । ऐसी स्थिति में आदैच्नष्ठ समुदायत्व जिस प्रकार आदैनिष्ठ उद्देश्यताप्रतियोगिक पर्याप्ति की अनुयोगिता का अवच्छेदक है, उसी प्रकार वृद्धित्वप्रतियोगिक पर्याप्ति की अनुयोगिता का अवच्छेदक समुदायत्व को ही होना चाहिये । तात्पर्य यह है कि जब आदैच् समुदाय को उद्देश्य करके वृद्धि विधेय है तब वृद्धि संज्ञा समुदाय को ही होनी चाहिये न कि आ, ऐ, औ, को पृथक्-पृथक् । इसी प्रकार गुणादि संज्ञाएँ भी समुदाय को ही होनी चाहिये । इस प्रकार की शंका होने पर यह परिभाषा बनाई गई -
प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिः ।। ११६ ।।
देवदत्तादयो भोज्यन्तामित्यत्र भुजिवत् ॥ ११६॥
वाक्य की समाप्ति प्रत्येक में होती है ।
यहाँ वाक्य शब्द का अर्थ वाक्य जन्य शाब्दबोधीय उद्देश्यता है । उस उद्देश्यता की परिसमाप्ति अर्थात् प्रर्याप्तिलक्षणसम्बन्ध प्रत्येकम् = अर्थात् प्रत्येक के साथ होता है । जैसे ‘वृद्धिरादैच्' इस वाक्यजन्य शब्दबोधीय उद्देश्यता 'आदैच्' में है । यह I । उद्देश्यता पर्याप्तिसम्बन्ध से 'आदैच्' समुदाय में न रह कर आ, ऐ, औ इन तीनों में पृथक्-पृथक् पर्याप्तिसम्बन्ध से रहती है । इस प्रकार जब उद्देश्यता प्रत्येक में रह गई तो वृद्धि इत्यादि संज्ञाएँ भी प्रत्येक की होंगी । जिस प्रकार कहा जाता है कि 'देवदत्त आदि को भोजन कराओ' तो यहाँ भुजि क्रिया का सम्बन्ध प्रत्येक के साथ होता है । प्रत्येक के भोजन किये विना समुदाय का भोजन हो ही नहीं सकता । उसी प्रकार वृद्धि इत्यादि संज्ञाएँ प्रत्येक को ही होती हैं । भुजि क्रिया के प्रत्येक वृत्तित्व से उसमें समुदायावृत्तित्व भी माना जाता है, किन्तु उसके समान वृद्धि आदि संज्ञाओं के प्रत्येक वृत्तित्व से उन्हें समुदायवृत्ति नहीं माना जा सकता क्योंकि समुदाय में वृद्धि आदि संज्ञाओं को करने का कोई फल नहीं है । किसी एक प्रयोग में 'आदैच्' समुदाय का आदेश सर्वथा असम्भव है । इस प्रकार वृद्धि आदि संज्ञाएँ प्रत्येक को होती हैं ।। ११६ ॥