औपदेशिकप्रायोगिकयोरौपदेशिकस्यैव ग्रहणम्
तथा –
औपदेशिकप्रायोगिकयोरौपदेशिकस्यैव ग्रहणम् ।१३०।
तेन 'दादेर्धातोः' इत्यत्र औपदेशिकधातोरेव ग्रहणमिति। तन्न। तयोर्निर्मूलकत्वाद्भाष्याव्यवहृतत्वाच्च। न च विकृतिः प्रकृतिं गृह्णातीति 'ग्रहिज्ये'ति सूत्रस्थभाष्येणाद्यायास्तिरस्काराच्च। 'निसमुपविभ्यो ह्वः' इत्यादौ ह्वेञोऽनुकरणे सौत्रः प्रयोगः। आत्वविषय एवात्मनेपदं प्रयोगस्थानामेवानुकरणस्य घुसंज्ञासूत्रे भाष्ये स्पष्टमुक्तत्वादित्यन्ये। अन्त्यापि तत्रोपदेशग्रहणं कुर्वतः सूत्रकृतो वार्तिककृतश्चासम्मता। 'इह हि व्याकरणे सर्वेष्वेव सानुबन्धकग्रहणेषु रूपमाश्रीयते यत्र अस्यैतद्रूपमिति, रूपनिर्ग्रहश्च शब्दस्य नान्तरेण लौकिकं प्रयोगम्। तस्मिंश्च लौकिके प्रयोगे सानुबन्धकानां प्रयोगो नास्तीति कृत्वा द्वितीयः प्रयोग उपास्यते, क उपदेशो नामे'ति घुसंज्ञासूत्रस्थभाष्येण प्रायोगिकासम्भवे तद्ग्रहणमित्यर्थस्य लाभेन भाष्यासम्मता च। भाष्ये सानुबन्धकेत्यादि प्रकृताभिप्रायेण। 'दादेः' इति सूत्रे दादिपदस्यौपदेशिकदादित्ववति लक्षणेति न दोष इत्यन्यत्र विस्तरः॥१३०॥
कामाख्या
निर्मूलत्वादिति। ज्ञापकशून्यत्वादित्यर्थः। ननु अप्रतिषिद्धमनुमतं भवतीति न्याय एवानुग्राहक इत्यत आह न च विकृति। प्रथमपरिभाषाप्रयोजनान्यथासिद्धिमाह निसमुपेति। सौत्रप्रयोग इति। एकारान्तस्यैव ह्वे इत्यस्यानुकरणं सूत्रे एवात्वमुदीचामाङ इत्यत्र यथा, तेन ह्वे इत्यस्यैव बोध्यतया उपह्वयत इत्यत्र स्वतः। कृतात्वे च स्थानिवद्भावेन सिद्धिरिति व्यर्थेयं परिभाषेति भावः। मतान्तरमाह आत्वविषय इति। द्वितीयां खण्डयति। अन्त्यापीति। भाष्यासम्मतत्वमाह इह हीति। ननु 'दादे'रिति सूत्रे। सानुबन्धकनिर्देशाभावेऽप्युक्तरीत्यौपदेशिकस्य ग्रहणं चेद् भाष्यकृतस्तथोपपादनाभावान्न्यूनतेत्यत आह भाष्ये सानुबन्धकेति। 'दादे'रिति सूत्रे गतिमाह दादेरिति॥१३०॥
हिन्दीटीका
तथा -
इसी प्रकार -
औपदेशिकप्रायोगिकयोरौपदेशिकस्यैव ग्रहणम् ॥ १३० ॥
औपदेशिक और प्रायोगिक के मध्य औपदेशिक का ही ग्रहण होता है ।
तेन दादेर्धातोः ८.२.३२ इत्यत्र औपदेशिकधातोरेव ग्रहणमिति । तन्न । तयोर्निर्मलत्वाभाष्याव्यवहृतत्वाच्च । न च विकृतिः प्रकृतिं गृह्णातीति ग्रहिज्या ६.१.१६ इति सूत्रस्थभाष्येणाद्यायास्तिरस्काराच्च 'निसमुपविभ्यो ह्वः' इत्यादौ ह्वेञोऽनुकरणे सौत्रः प्रयोगः ।
आत्वविषय एवात्मनेपदं प्रयोगस्थानामेवानुकरणस्य घुसंज्ञासूत्रे भाष्ये स्पष्टमुक्तत्वादित्यन्ये ।
अन्त्यापि तत्रोपदेशग्रहणं कुर्वतः सूत्रकृतो वार्तिककृतश्चासम्मता । 'इह हि व्याकरणे सर्वेष्वेव सानुबन्धकग्रहणेषु रूपमाश्रीयते यत्र अस्यैतद्रूपमिति । रूपनिर्ग्रहश्च शब्दस्य नान्तरेण लौकिकं प्रयोगम् । तस्मिंश्च लौकिके प्रयोगे सानुबन्धकानां प्रयोगो नास्तीति कृत्वा द्वितीयः प्रयोग उपास्यते, क उपदेशो नामे'ति घुसंज्ञासूत्रस्थभाष्येण प्रायोगिकासम्भवे तद्ग्रहणमित्यर्थस्य लाभेन भाष्यासम्मता च ।
भाष्ये सानुबन्धकेत्यादि प्रकृताभिप्रायेण । 'दादेः' इति सूत्रे दादिपदस्यौपदेशिकदादित्ववति लक्षणेति न दोष इत्यन्यत्र विस्तरः ।। १२९-१३० ॥
इस परिभाषा को स्वीकार करने का फल यह होता है कि 'दादेर्धातोर्घः' इस सूत्र में औपदेशिक दादिधातु का ग्रहण किया जाता है । परिणाम इसका यह होता है कि 'अधोक्' प्रयोग में अडागम होने के कारण यद्यपि दादित्व का अभाव हो गया है, तथापि 'दुह ' धातु के अपौदेशिक दादि होने के कारण उसके हकार को घकार हो जाता है, किन्तु 'दामलिहमात्मन इच्छति' इस विग्रह में धातु बनाये गये 'दामलिह्' धातु के दादि होने पर भी उसके हकार को घकार नहीं होता है क्योंकि 'दामलिह ' औपदेशिक धातु नहीं है ।
नागेशभट्ट इन दोनों परिभाषाओं का खण्डन करते हुए कह रहे हैं - तन्न; अर्थात् उपर्युक्त दोनों परिभाषाएँ निर्मूल तथा भाष्यकार के द्वारा अव्यवहृत होने के कारण मान्य नहीं हैं ।
'ग्रहिज्यावयि' इत्यादि सूत्र के भाष्य में भाष्यकार ने पहली परिभाषा का तिरस्कार करते हुए कहा कि 'न च विकृतिः प्रकृति गृह्णाति' अर्थात् विकृति से प्रकृति का ग्रहण नहीं होता । अब इसके ऊपर प्रश्न होता है कि जब विकृति से प्रकृति का ग्रहण नहीं होता तो 'निसमुपविभ्यो ह्वः' इस सूत्र में ह्वा शब्द से ह्वे धातु का ग्रहण कैसे होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए नागेशभट्ट कह रहे हैं कि उक्त सूत्र में जो 'हा' यह निर्देश किया गया है वह एकारान्त ह्वे धातु का अनुकरण है । अनुकरण से अनुकार्य का बोध होता है इसलिये ह्वा शब्द से ह्वे धातु का बोध हो जायेगा । यदि कहा जाय कि आत्वविधायकसूत्र ' आदेच उपदेशेऽशिति' में अशिति पद में यद्यपि प्रसज्यप्रतिषेध का आश्रयण किया गया है, तथापि उसी एच् को आत्व होता है जिसमें शित्परत्व की योग्यता हो, अन्यथा सर्वत्र आत्व की आपत्ति होने लगेगी । ऐसी स्थिति में सूत्रस्थ ह्वे धातु में शित् परत्व की योग्यता न होने के कारण यहाँ आत्व किस प्रकार हुआ है ?
इस शंका के उत्तर में ग्रन्थकार का कहना है कि यह सौत्र प्रयोग है । जैसे - ‘उदीचां माङो व्यतीहारे' सूत्र में सूत्रत्वात् आत्व हो गया है वैसे ही यहाँ भी सूत्रत्वात् आत्व हो गया है । आत्व हो जाने के बाद 'आतो धातोः ' सूत्र की प्रवृत्ति हो जाने से ‘ह्वः' यह निर्देश उपपन्न हो जाता है ।
कुछ लोगों का कहना है कि शित् भिन्न प्रत्ययों में जहाँ ह्वे धातु के एकार को आत्व होता है, उन प्रयोगस्थ ह्वा शब्दों का अनुकरण यह 'निसमुपविभ्यो ह्वः' सूत्र का ह्वा शब्द है । इसलिये नि, सम् उप् और वि से पर में रहने वाले ह्वे धातु से आत्मनेपद वहीं होगा जहाँ आत्व की विषयता होगी । आत्व की विषयता अशित् लकार में होती है, इसलिये वहीं आत्मनेपद भी होगा, अन्यत्र नहीं होगा । घुसंज्ञा विधायक सूत्र के भाष्य में भाष्यकार ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि 'ह्वः' यह अनुकरण प्रयोगस्थ हा शब्द का है । इस प्रकार 'क्वचित् विकृतिः प्रकृति गृह्णाति' ह्वा यह पहली परिभाषा अनावश्यक है ।
अन्त्यापि = दूसरी परिभाषा जो औपदेशिक के ग्रहण के लिये उपात्त है उसकी भी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जहाँ-जहाँ औपदेशिक ग्रहण अभिप्रेत है वहाँ - वहाँ सूत्रकार और वार्तिककार ने उपदेश ग्रहण कर दिया है । जैसे - 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् ' 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' इत्यादि सूत्रों में सूत्रकार ने उपदेश का ग्रहण किया है । वार्तिककार ने भी 'स्यसिच्' (६.४.६२) सूत्र में कहा है कि 'चिण्वद्भाव उपदेशवचनमृकारगुणबलीयस्त्वात्' । इस प्रकार सूत्रकार और वार्तिककार के द्वारा तत्तद्स्थलों में उपदेशग्रहण करने से यह स्पष्ट है कि उन्हें यह परिभाषा अभिप्रेत नहीं है ।
यह परिभाषा भाष्यकार को भी सम्मत नहीं है । 'तरप्तमपौ घः' इस सूत्र के भाष्य में भाष्यकार ने विचार किया कि 'नद्यास्तरो नदीतरः' यहाँ तर को घ संज्ञा . क्यों नहीं होती ? ऐसी शंका करके भाष्यकार ने कहा कि इस व्याकरण शास्त्र में जहाँ-जहाँ अनुबन्ध संहित का ग्रहण किया गया है उन सभी सानुबन्धक स्थलों में रूप का आश्रयण किया जाता है । जहाँ उसका वैसा रूप रहेगा, वहीं पर वह कार्य होगा । किसी भी शब्द के रूप का प्रयोग लौकिक प्रयोग के बिना सम्भव नहीं है । उस लौकिक प्रयोग में सानुबन्धक शब्द का प्रयोग नहीं होता, जैसे - 'लघुतरः, लघुतमः' इन प्रयोगों में अनुबन्ध पकार का उल्लेख नहीं है । इसी प्रकार 'नदीतरः ' प्रयोग में भी अनुबन्ध का उल्लेख न होने के कारण 'लघुतर और नदीतरः ' में कोई पार्थक्य न होने के कारण 'नदीतरः' में भी घ संज्ञा की प्राप्ति होती है । इस दोष को दूर करने के लिये भाष्यकार कहते हैं कि 'द्वितीयः प्रयोग उपास्यते' अर्थात् तरप् आदि प्रत्ययों के दूसरे प्रयोग का आश्रयण किया जायेगा । अब प्रश्न होता है कि लौकिक प्रयोग के अतिरिक्त इनका दूसरा प्रयोग कहाँ होता है ? उत्तर में भाष्यकार का कहना है कि दूसरा प्रयोग उपदेश अवस्था में होता है अर्थात् औपदेशिक प्रयोग का ग्रहण किया जायेगा । नदीतरः का तर शब्द औपदेशिक तरप् नहीं है जैसे कि 'लघुतरः' 'ब्राह्मणितरा' इत्यादि प्रयोगों का तर औपदेशिक तरप् है । 'नदीतरः' का जो तर शब्द है वह तो तृ धातु से अप् प्रत्यय (ऋदोरम्) करने से बना है । इस लिये यहाँ घ संज्ञा नहीं होती इस प्रकार भाष्यकार ने प्रायोगिक सानुबन्धक के असम्भव होने के कारण औपदेशिक सानुबन्धक का ग्रहण करके इस बात को ध्वनित किया है कि इस कार्य के लिये इस परिभाषा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब प्रायोगिक असम्भव होगा तो औपदेशिक का ग्रहण स्वयमेव सिद्ध है । इस प्रकार यह दूसरी परिभाषा भी सूत्र, वार्तिक और भाष्य से असम्मत होने के कारण व्यर्थ ही है ।
यहाँ यह बात भी स्पष्ट हो जानी चाहिये कि पकार अनुबन्ध के साथ रहते ही तरप् और तमप् प्रत्ययों की उपदेश अवस्था में ही घ संज्ञा हो जाती है । 'ब्राह्मणितरा' इत्यादि प्रयोगों में स्थानिवद्भाव से यह घ संज्ञा 'तर' में मानी जाती है । 'नदीतरा' का 'तर' कभी भी पकारानुबन्ध सहित औपदेशिक नहीं होता, अतः यहाँ घ संज्ञा नहीं हो सकती ।
'तरप्तमपौ घः' इस सूत्र के भाष्य में भाष्यकार ने कहा है कि 'इह हि व्याकरणे सर्वेष्वेव सानुबन्धकग्रहणेषु रूपमाश्रीयते' इस भाष्य में जो 'सानुबन्धकग्रहणेषु' यह अंश है वह प्रकृत अर्थात् प्रस्तुत प्रकरणगत 'तरप्तमपौ घः' इस सूत्र के अभिप्राय से लिखा गया है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सानुबन्धक तर यहाँ उपदेश अवस्था में मिलता है और इसे यहीं घ संज्ञा हो जाती है, इसी प्रकार सभी सानुबन्धकस्थलो समझना चाहिये ।
यहाँ अब यह शंका होती है कि जब यह परिभाषा नहीं है तब 'दादेर्धातोर्घः ' इस सूत्र में औपदेशिक दादिधातु का ग्रहण किस प्रकार होगा ? और जब यहाँ औपदेशिक दादि का ग्रहण नहीं होगा तो 'अधोक' में अजादि धातु हो जाने के कारण धत्व न होने से अव्याप्ति दोष तथा 'दामलिट्' प्रयोग में दादि (नामधातु) धातु होने के कारण प्रसक्त घत्व के कारण अतिव्याप्ति दोष का वारण किस प्रकार होगा ? इस शंका के उत्तर में नागेशभट्ट का कहना है कि यहाँ दादिपद औपदेशिक दादित्व का बोध लक्षणा से करा देता है जिससे 'अधोक' प्रयोग में अडागम के द्वारा अजादि हो जाने पर भी दुह धातु के औपदेशिक दादि होने के कारण यहाँ घत्व हो जाता है । 'दामलिट्' प्रयोग में यद्यपि दादित्व है तथापि यह दामलिह् औपदेशिक धातु नहीं है । यह तो नामधातु है अतः यहाँ घत्व नहीं होता । इस प्रकार इस परिभाषा के अभाव में भी उपर्युक्त अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों का निराकरण हो जाता है ।
यहाँ लक्षणा के द्वारा उपदेशपदार्थ के लाभ के सम्बन्ध में तीन मत हैं । प्राचीन दीक्षित आदि विद्वानों का कहना है कि 'दादेर्धातोर्घः' इस में जो धातु पद है उसकी आवृत्ति की जाती है । उनमें आवृत्त 'धातो:' यह पद व्यर्थ होकर उपदेशकाल में लाक्षणिक होता है । अर्थात् उपदेशकालिक धातु का यहाँ ग्रहण किया जायेगा । किन्तु ऐसा व्याख्यान करने पर 'दामलिट्' प्रयोग में दोष न होने पर भी 'अधोक्' की अव्याप्ति नहीं मिटेगी क्योंकि औपदेशिक धातु होने पर भी सम्प्रति यह दादि नहीं है । नागेशभट्ट ने उपर्युक्त दोष को दूर करने के लिये 'दादे:' इसी पद की आवृत्ति की है । एक ही 'दादे:' पद से वाञ्छित सिद्धि हो जाने की स्थिति में आवृत्त दादि पद की क्या आवश्यकता है ? यही 'दादेः' पद व्यर्थ होकर उपदेशकालिक दादि अर्थ में लाक्षणिक होता है । इस प्रकार दामलिट् और अधोक् दोनों दोषों का निराकरण हो जाता है ।
भाष्यकार ने 'धुक्' इत्यादि प्रयोगों में पूर्वत्रिपादी 'हो ढः ' 'हो ढः' सूत्र से परत्रिपादी 'दादेर्धातोर्घः' का बाध होकर ढ़त्व न होने लगे इसलिए अपवादत्वेन घत्व से ढ़त्व का बाध करके एक समाधानानन्तर दिया कि 'हो ढोऽदादेः' और 'धातोर्घः' ऐसा न्यास किया जायेगा । इसमें उत्तर योग में नञ् रहित 'दादेः' इस पद की अनुवृत्ति की जायेगी । फिर प्रश्न होगा कि जब दादिभिन्न के हकार को ढकार होता है तब यह स्वयं सिद्ध है कि छत्व जो होगा वह तो दादि धात्ववयव हकार को ही होगा । ऐसी स्थिति में उत्तर योग में 'दादे:' पद की की गई अनुवृत्ति व्यर्थ होकर उपदेशकालिकदादित्वविशिष्ट में लाक्षणिक होती है । इस प्रकार ‘दादेर्धातोर्घः' इस सूत्र में भी प्रस्तुत परिभाषा के अभाव में औपदेशिक का ग्रहण हो जाने के कारण कोई दोष नहीं रह जाता है । यह बात 'दादेर्धातोर्घः' सूत्र के शब्देन्दुशेखर में विस्तार से कही गई है ।। १२९-१३० ।।